श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
( Shree durga saptshati )श्रीदुर्गा सप्तशती माँ दुर्गा का यह पाठ हिन्दू धर्म के शाक्त संप्रदाय में शक्ति के उपासक द्वारा महत्वपूर्ण पाठ माना जाता है | माँ दुर्गा के इस दुर्लभ पाठ के बारे में संपूर्ण जानकारी हम इस लेख के माध्यम से आपको बता रहे हैं इसमें हम दुर्गा सप्तशती कथा: विवरण और अर्थ सहित | दुर्गा सप्तशती के मंत्र: श्लोक और उनके महत्वपूर्ण जानेंगे | दुर्गा सप्तशती की पूजा तकनीक: पाठ का समावेश-जापान के बारे में भी जानेंगे |
श्री दुर्गा सप्तसती सम्पूर्ण पाठ के बारे में –
दुर्गा सप्तशती हिंदू-धर्म सर्वमान्य ग्रंथ है। भगवती की कृपाके सुन्दर इतिहास के साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य मौजूद हैं। कर्म, भक्ति और ज्ञान की त्रिविध मन्दाकिनी गाय वाला यह पाठभक्तों के लिए वांछाकल्पतरु है। सकाम भक्त इसके सेवन से मनोऽभिलाषित दुर्लभतम वस्तु या स्थिति सहज ही प्राप्त करते हैं और निष्काम भक्त परम दुर्लभ मोक्ष को प्रदान करते हैं।
राजा सुरथ से महर्षि मेधा ने कहा था- ‘ तमुपैहि महाराज शरणं भगवानम्। सारस्वयं नृणां भोगस्वर्गपवर्गदा ॥ महाराज ! आप जेनेवी भगवती भगवान की शरण ग्रहण करें। वे सार्जेंट से वेबसाइट से संबद्ध ब्लॉग, स्वर्ग और अपुनराविद्या मोक्ष प्रदान करते हैं।’ इसी के अनुसार आदेश डेक ऐश्वर्यकामी राजा सुरथने ने अखंड साम्राज्य प्राप्त किया और वैराग्यवान समाधि वैश्यने दुर्लभ ज्ञान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति की। अब तक इस आशीर्वाद के रूप में मंत्रमयी गायत्री के आश्रय से न तो भिन्न कला, अर्थार्थी, जिज्ञासु और प्रेमी अपने भक्त मनोरथ सफल हुए हैं। कठोर यह है कि जगज्जननी भगवती श्रीदुर्गाजी की कृपा से संबंधित सप्तशती गुरु पाठ-विधि इस लेख (पेज) में उनके दर्शन की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें भी हैं, जो ‘कल्याण’ के विशेषांक ‘संक्षेप मार्कण्डेय-ब्रह्मपुराणांक’ में प्रकाशित हैं। कुछ उपयोगी स्तोत्र और भी आपको इस लेख में देखने को मिलेंगे |
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
श्री दुर्गा सप्तशती इस लेख के पाठ में कवच, अर्गला और कीलक का भी अर्थ दिया गया है। श्री दुर्गा सप्तशती
वैदिक-तान्त्रिक,रात्रिसूक्त और देवीसूक्त के साथ ही देव्यथर्वशीर्ष, सिद्ध-कुंजिकास्तोत्र, मूल सप्तश्लोकी दुर्गा, श्रीदुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला, श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्र, श्रीदुर्गामानसपूजा और देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रको भी देने से इस आर्टिकल की उपादेयता विशेष बढ़ गयी है। सप्तशतीके मूल श्लोकोंका पूरा अर्थ दे दिया गया है। तीनों रहस्यों में आये हुए कई गूढ़ विषयों को भी टिप्पणी द्वारा स्पष्ट किया गया है। इन विशेषताओं के कारण यह पाठ और अध्ययन के लिये बहुत ही उपयोगी और उत्तम आर्टिकल हो गया है।
श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ में विधि का ध्यान रखना तो उत्तम है ही, भगवती दुर्गामाता के चरण में प्रेमपूर्ण भक्ति भी सर्वोत्तम है। श्रद्धा और भक्ति के साथ जगदम्बा के स्मरण से सप्तशती का पाठ करने वाले को उनकी कृपा का शीघ्र अनुभव हो सकता है। आशा है, प्रेमी पाठक समान लाभ पदवी हैं। ओर माता भगवती की कृपा प्राप्त करें |
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
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ज्योतिष की महत्वपूर्ण बातें जो आपकी सारी समस्या का समाधान कर सकती हैं
दुर्गा सप्तशती का पाठ करने वाले साधक को सबसे पहले स्नान करके पवित्र हो आसन देकर शुद्ध वस्त्र धारण और शुद्ध आसन पर बैठकर आचमन की प्रक्रिया पूरी करें, साथ में शुद्ध जल पूजन सामग्री और माता के चित्र या मूर्ति के दर्शन करें दुर्गा को कुमकुम का तिलक चावल,हल्दी,फूल आदि समर्पित करें | दोस्ती पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म चंदन या होली लगा ले अगर पाठ हो तो सीखे बांध ले फिर पूर्व मुख तत्व शुद्धि के लिए चार बार आचमन करें इस बार युवा दोस्तों को बोलें
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥
तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करे; फिर ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ०’ इत्यादि मन्त्र से कुरो की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूपये संकल्प करे-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः । ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमय्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्ध श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत- मन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतद्ब्रह्मावर्तेकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकायने महामाङ्गल्यप्रदे मासानाम् उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम् अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवंगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ सकलशास्त्रश्श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुकशर्मा अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व- विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्धयर्थं श्रीनवदुर्गाप्रसादेन सर्वा पन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थकाममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली- महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्तरात्रिसूक्तपाठदेव्यथर्वशीर्षपाठन्यासविधिसहितनवार्णजपसप्तशतीन्यास- ध्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च ‘मार्कण्डेय उवाच ॥ सावर्णिः सूर्वतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः ।‘ इत्याद्यारभ्य ‘सावर्णिर्भविता मनुः’ इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये।
इस प्रकार प्रतिज्ञा ( संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचारिक की विधि से पुस्तक की पूजा पूजा करें,योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करे, फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करे।‘ इसके बाद शापोद्धार 3 करना चाहिये। इसके अनेक प्रकार हैं। ‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ – इस मन्त्र का आदि और अन्त में सात बार जप करे। यह शापोद्धार मन्त्र कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्रका जप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त मे इक्कीस इक्कीस बार होता है | यह मन्त्र इस प्रकार है | ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।‘ मारीचकल्प के अनुसार सप्तसती शपविमोचन का मंत्र ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।‘ इस मन्त्रका आरम्भमें ही एक सौ आठ बार जप करना चाहिये, पाठके अन्तमें नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्रके अन्तर्गत दुर्गाकल्पमें कहे हुए चण्डिका-शाप-विमोचन मन्त्रोंका आरम्भमें ही पाठ करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-
1- मन्त्र–
ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥
(वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता)
2- ध्यात्वा देवीं पञ्चपूजां कृत्वा योन्या प्रणम्य च।
आधारं स्थाप्य मूलेन स्थापयेत्तत्र पुस्तकम् ॥
3- ‘सप्तशती-सर्वस्व’ के उपासना-क्रम में पहले शापोद्धार करके बाद में षडंग सहित पाठ करने का निर्णय किया गया है, अतः कवच आदि पाठ के पहले ही शापोद्धार कर लेना चाहिये। कात्यायनी तन्त्रमें शापोद्धार तथा उत्कीलन का और ही प्रकार बतलाया गया है-‘अन्त्याद्यार्कद्विरुद्रत्रिदिगब्ध्यङ्केष्विभर्तवः । अश्वोऽश्व इति सर्गाणां शापोद्धारे मनोः क्रमः ॥‘ ‘उत्कीलने चरित्राणां मध्याद्यन्तमिति क्रमः।‘ अर्थात् सप्तशतीके अध्यायों का तेरह-एक, बारह-दो, ग्यारह-तीन, दस-चार, नौ-पाँच तथा आठ-छःके क्रमसे पाठ करके अन्तमें सातवें अध्यायको दो बार पढ़े। यह शापोद्धार है और पहले मध्यम चरित्र का, फिर प्रथम चरित्र का, तत्पश्चात् उत्तर चरित्र का पाठ करना उत्कीलन है। कुछ लोगों के मत में कीलक में बताये अनुसार ‘ददाति प्रतिगृह्णाति’ के नियम से कृष्णपक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी तिथिमें देवीको सर्वस्व-समर्पण करके उन्हीं का होकर उनके प्रसादरूपसे प्रत्येक वस्तु को उपयोग में लाना ही शापोद्धार और उत्कीलन है। कोई कहते हैं- छः अंगोंसहित पाठ करना ही शापोद्धार है। अंगोंका त्याग ही शाप है। कुछ विद्वानों की राय में शापोद्धार कर्म अनिवार्य नहीं है, क्योंकि रहस्याध्याय में यह इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।‘ इसके जपके पश्चात् आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जप करना चाहिये, जो इस प्रकार है – ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।‘ मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचनका मन्त्र यह है – ‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।‘ इस मन्त्रका आरम्भ में ही एक सौ आठ बार जप करना चाहिये, पाठ के अन्तमें नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अन्तर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका-शाप-विमोचन मन्त्रों का आरम्भ में ही पाठ करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ- नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्रीं शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ॐ (ह्रीं ) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 1॥ ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 2 ॥ ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 3 ॥ ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 4 ॥ ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव || 5 ॥ ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 6 ॥ ॐ तूं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 7 ॥ ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 8 ॥ ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 9 ॥ ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 10 ॥ ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 11 ॥ ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 12 ॥ ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 13 ॥ ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 14 ॥ ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 15 ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 16 ॥ ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ 17 ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महाकाली- महालक्ष्मीमहासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः ॥ 18 ॥ इत्येवं हि महामन्त्रान् पठित्वा परमेश्वर। चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः ॥ 19 ॥ करोति यः । एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः ॥ 20 ॥
स्पष्ट रूप से कहा है कि जिसे एक ही दिनमें पूरे पाठका अवसर न मिले, वह एक दिन केवल मध्यम चरित्र का और दूसरे दिन शेष दो चरित्रों का पाठ करे। इसके सिवा, जो प्रतिदिन नियमपूर्वक पाठ करते हैं, उनके लिये एक दिन में एक पाठ न हो सकने पर एक, दो, एक, चार, दो, एक और दो अध्यायों के क्रमसे सात दिनों में पाठ पूरा करने का आदेश दिया गया है। ऐसी दशा में प्रतिदिन शापोद्धार और कीलक कैसे सम्भव है। अस्तु, जो हो, हमने यहाँ जिज्ञासुओं के लाभार्थ शापोद्धार और उत्कीलन दोनोंके विधान दे दिये हैं। इस प्रकार शापोद्धार करनेके अनन्तर अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका आदि न्यास करे, फिर श्रीदेवीका ध्यान करके रहस्यमें बताये अनुसार नौ कोष्ठोंवाले यन्त्रमें महालक्ष्मी आदिका पूजन करे, इसके बाद छ: अंगोंसहित दुर्गासप्तशतीका पाठ आरम्भ किया जाता है। कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य-ये ही सप्तशतीके छः अंग माने गये हैं। इनके क्रममें भी मतभेद है। चिदम्बर- संहितामें पहले अर्गला फिर कीलक तथा अन्तमें कवच पढ़नेका विधान है। किंतु योगरत्नावलीमें पाठका क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवचको बीज, अर्गलाको शक्ति तथा कीलकको कीलक संज्ञा दी गयी है। जिस प्रकार सब मन्त्रोंमें पहले बीजका, फिर शक्तिका तथा अन्तमें कीलकका उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवचरूप बीजका, फिर अर्गलारूपा शक्तिका तथा अन्तमें कीलकरूप कीलकका क्रमशः पाठ होना चाहिये। * यहाँ इसी क्रमका अनुसरण किया गया है। यथा सर्वमन्त्रेषु बीजशक्तिकीलकानां प्रथममुच्चारणं तथा सप्तशतीपाठेऽपि कवचार्गलाकीलकानां प्रथमं पाठः स्यात्। इस प्रकार अनेक तन्त्रोंके अनुसार सप्तशतीके पाठका क्रम अनेक प्रकारका उपलब्ध होता है। ऐसी दशामें अपने देशमें पाठका जो क्रम पूर्वपरम्परासे प्रचलित हो, उसीका अनुसरण करना अच्छा है।
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
1- श्री दुर्गा सप्तशती अथ सप्तश्लोकी दुर्गा
अथ सप्तश्लोकी दुर्गा
शिव उवाच-देवित्वं त्वँ भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी | कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं। ब्रूहि यत्नतः ॥
देव्युवाच-शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम् । मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते ॥
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः ।
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का सर्वोपकारकरणाय त्वदन्या सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि । नमोऽस्तु ते ॥ ३॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥४॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥५॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ ६ ॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥ ॥
इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा ॥
शिवजी बोले– हे देवि ! तुम भक्तों के लिये सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो। कलियुग में कामनाओं की सिद्धि-हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा सम्यक्-रूप से व्यक्त करो। देवीने कहा– हे देव! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है। कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बतलाऊँगी, सुनो! उसका नाम है ‘अम्बास्तुति’। ॐ इस दुर्गासप्तश्लो की स्तोत्रमन्त्र के नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, श्रीमहाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवता हैं, श्रीदुर्गा की प्रसन्नता के लिये सप्तश्लो की दुर्गापाठ में इसका विनियोग किया जाता है। वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं॥१॥ माँ दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि ! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो ॥ २॥ नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है ॥ ३॥शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवि ! तुम्हें नमस्कार है ॥४॥ सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि ! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है ॥५॥ देवि ! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं ॥ ६॥ सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो ॥ ७॥॥ श्री दुर्गा सप्तशती
श्री सप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्ण ॥
Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती ):-
2-श्री दुर्गा सप्तशती श्रीदुर्गाष्टोत्तमशतनामस्तोत्रम्
श्रीदुर्गाष्टोत्तमशतनामस्तोत्रम्
ईश्वर उवाच
शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने । यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ॥१॥
ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी। आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ॥ २ ॥
पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः। मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ॥ ३ ॥
सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी । अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः ॥४॥
श्री दुर्गा सप्तशती
शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा। सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥ ५ ॥
अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती। पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ॥ ६ ॥
अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी। वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ॥ ७ ॥
ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा। चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः ॥ ८ ॥
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा । बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना ॥ ९ ॥ निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी । मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ॥ १०॥
सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी । सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ॥११॥
अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी । कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ॥ १२॥
अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा। महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ॥ १३ ॥
अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी । नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ॥ १४ ॥
शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी | कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ॥ १५ ॥
य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्। नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ॥ १६ ॥
धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च। चतुर्वर्ग तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ॥ १७ ॥
कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्। पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ॥ १८॥
तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि। राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ॥ १९॥
गोरोचनालक्तककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ॥ २० ॥
भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते। विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम् ॥ २१ ॥
इति श्रीविश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम्।
Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती ):-
शंकरजी पार्वती जी से कहते हैं– कमलान ने ! अब मैं अष्टोत्तरशतनामका वर्णन करता हूँ, सुनो; जिसके प्रसाद (पाठ या श्रवण) मात्र से परम साध्वी भगवती दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं ॥१॥१-ॐ सती, २-साध्वी, ३-भवप्रीता (भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली), ४-भवानी, ५- भवमोचनी (संसारबन्धन से मुक्त करने वाली), ६-आर्या,७-दुर्गा, ८-जया, ९-आद्या, १०-त्रिनेत्रा, ११-शूलधारिणी, १२-पिनाकधारिणी, १३-चित्रा, १४-चण्डघण्टा (प्रचण्ड स्वरसे घण्टानाद करने वाली), १५-महातपा (भारी तपस्या करने वाली), १६-मन (मनन- शक्ति), १७-बुद्धि (बोधशक्ति), १८-अहंकारा (अहंताका आश्रय), १९-चित्तरूपा, २०-चिता, २१-चिति (चेतना), २२-सर्वमन्त्रमयी, २३-सत्ता (सत्-स्वरूपा), २४-सत्यानन्दस्वरूपिणी, २५-अनन्ता स्वरूप का कहीं अन्त नहीं), २६ भाविनी (सबको उत्पन्न करने वाली), २७-भाव्या (भावना एवं ध्यान करने योग्य), २८-भव्या (कल्याणरूपा), २९-अभव्या (जिससे बढ़कर भव्य कहीं है नहीं), ३०-सदागति,३१-शाम्भवी (शिवप्रिया), ३२-देवमाता, ३३-चिन्ता, ३४-रत्नप्रिया, ३५-सर्वविद्या, ३६-दक्षकन्या, ३७- दक्षयज्ञविनाशिनी, ३८-अपर्णा (तपस्याके समय पत्तेको भी न खानेवाली), ३९-अनेकवर्णा (अनेक रंगों वाली), ४०-पाटला (लाल रंगवाली), ४१-पाटलावती (गुलाबके फूल या लाल फूल धारण करनेवाली), ४२-पट्टाम्बरपरीधाना (रेशमी वस्त्र पहनने वाली), ४३-कलमंजीररंजिनी (मधुर ध्वनि करने वाले मंजीर को धारण करके प्रसन्न रहने वाली), ४४-अमेयविक्रमा (असीम पराक्रम वाली), ४५-क्रूरा (दैत्योंके प्रति कठोर), ४६-सुन्दरी, ४७-सुरसुन्दरी, ४८-वनदुर्गा, ४९-मातंगी, ५०-मतंगमुनिपूजिता, ५१-ब्राह्मी, ५२-माहेश्वरी, ५३-ऐन्द्री, ५४-कौमारी, ५५-वैष्णवी, ५६-चामुण्डा, ५७-वाराही, ५८-लक्ष्मी, ५९-पुरुषाकृति,६०-विमला, ६१-उत्कर्षिणी, ६२-ज्ञाना, ६३-क्रिया, ६४-नित्या, ६५-बुद्धिदा, ६६-बहुला, ६७-बहुलप्रेमा, ६८-सर्ववाहनवाहना, ६९-निशुम्भ-शुम्भहननी, ७०-महिषासुरमर्दिनी, ७१-मधुकैटभहन्त्री, ७२-चण्डमुण्डविनाशिनी, ७३-सर्वासुरविनाशा, ७४-सर्वदानवघातिनी, ७५-सर्वशास्त्रमयी, ७६-सत्या, ७७-सर्वास्त्रधारिणी, ७८-अनेकशस्त्रहस्ता, ७९- अनेकास्त्रधारिणी, ८०-कुमारी, ८१-एककन्या, ८२-कैशोरी, ८३-युवती, ८४-यति, ८५-अप्रौढा, ८६-प्रौढा, ८७-वृद्धमाता, ८८-बलप्रदा, ८९-महोदरी, ९०-मुक्तकेशी, ९१-घोररूपा, ९२-महाबला, ९३-अग्निज्वाला, ९४-रौद्रमुखी, ९५-कालरात्रि, ९६-तपस्विनी, ९७-नारायणी, ९८- भद्रकाली, ९९-विष्णुमाया, १००-जलोदरी, १०१-शिवदूती, १०२-कराली, १०३-अनन्ता (विनाशरहिता), १०४-परमेश्वरी, १०५-कात्यायनी, १०६-सावित्री, १०७-प्रत्यक्षा, १०८- ब्रह्मवादिनी ॥ २- १५ ॥देवी पार्वती ! जो प्रति दिन दुर्गाजी के इस अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करता है, उसके लिये तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है ॥ १६ ॥ वह धन, धान्य, पुत्र, स्त्री, घोड़ा, हाथी, धर्म आदि चार पुरुषार्थ तथा अन्तमें सनातन मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है ॥ १७॥ कुमारीका पूजन और देवी सुरेश्वरीका ध्यान करके पराभक्तिके साथ उनका पूजन करे, फिर अष्टोत्तरशत- नामका पाठ आरम्भ करे ॥ १८ ॥ देवि ! जो ऐसा करता है, उसे सब श्रेष्ठ देवताओंसे भी सिद्धि प्राप्त होती है। राजा उसके दास हो जाते हैं। वह राज्यलक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है ॥ १९ ॥ गोरोचन, लाक्षा, कुंकुम, सिन्दूर, कपूर, घी (अथवा दूध), चीनी और मधु-इन वस्तुओंको एकत्र करके इनसे विधिपूर्वक यन्त्र लिखकर जो विधिज्ञ पुरुष सदा उस यन्त्रको धारण करता है, वह शिवके तुल्य (मोक्षरूप) हो जाता है ॥ २० ॥ भौमवती अमावास्याकी आधी रातमें, जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्रपर हों, उस समय इस स्तोत्रको लिखकर जो इसका पाठ करता है, वह सम्पत्तिशाली होता है ॥ २१ ॥
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
इति श्रीविश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम्।
Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती ):-
3-श्री दुर्गा सप्तसती पाठविधि
1- देव्याः कवचम् Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
ॐ नमश्चण्डिकायै ॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १॥
ब्रह्मोवाच
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।||देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ २॥ प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ ३ ॥ पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ ४॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥५॥ अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ ६॥ न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे। नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ॥ ७ ॥ यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते । ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ॥ ८ ॥ प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना। ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ ९ ॥ माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ १०॥ श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना। ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥ ११॥ इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः । नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥ १२ ॥ दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः । शङ्ख चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ॥ १३॥ खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ॥ १४॥ दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥ १५॥ नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे । महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥ १६ ॥ त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ १७॥ दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी । प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी ॥ १८ ॥ उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। ऊर्ध्व ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा ॥ १९ ॥ एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना। जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ॥ २० ॥ अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता। शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्नि व्यवस्थिता ॥ २१ ॥ मालाधरी ललाटे च ध्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी। त्रिनेत्रा च ध्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके ॥ २२ ॥ शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ॥ २३ ॥ नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ २४॥ दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥ २५ ॥ कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला। ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ २६ ॥ नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी। स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ॥ २७॥ हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च। नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ २८॥ स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी । हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ २९॥ नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा । पूतना कामिका मेढूं गुदे महिषवाहिनी ॥ ३०॥ कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। जङ्गे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥ ३१ ॥ गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी। पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥ नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी । रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ॥ ३३ ॥ रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती । अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ ३४ ॥ पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥ ३५ ॥ शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा । अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ ३६ प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्। वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ॥ ३७॥ रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ ३८ ॥ आयू रक्षतु वाराही धर्म रक्षतु वैष्णवी । यशः कीर्ति च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ ३९ ॥ गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्या रक्षतु भैरवी ॥ ४० ॥ पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्ग क्षेमकरी तथा । राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ॥ ४१ ॥ रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्व रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ॥ ४२ ॥पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः । कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ॥ ४३ ॥ तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्। परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ॥ ४४ ॥ निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः। त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥ ४५ ॥ इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्। यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥ ४६ ॥ दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः । जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥ ४७ ॥नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः । स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम् ॥ ४८॥ अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले । भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः ॥ ४९ ॥ सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ॥५०॥ ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः । ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥ नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥५२॥यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले । जपेत्सप्तशती चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ॥ ५३ ॥ यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी ॥ ५४॥ देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्। प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ॥ ५५ ॥ लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ ॐ ॥ ५६ ॥
इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम् । Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
ॐ चण्डिका देवीको नमस्कार है।
मार्कण्डेयजी ने कहा– पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये ॥ १॥
श्री दुर्गा सप्तशती Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
ब्रह्मांजी बोले– ब्रह्मन् ! ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करने वाला है। महामुने! उसे श्रवण करो ॥ २ ॥ देवी की नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं। उनके पृथक् पृथक् नाम बतलाये जाते हैं। प्रथम नाम शैलपुत्री है। दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी’ है। तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी मूर्तिको कूष्माण्डारे कहते हैं। पाँचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता है। देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं। सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है। नवीं दुर्गाका नाम सिद्धिदात्री है। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान्के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं॥३-५॥ जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता। युद्ध के समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं तथा पि हिमालय की तपस्या और प्रार्थना से प्रसन्न हो कृपापूर्वक उनकी पुत्री के रूप में प्रकट हुईं। यह बात पुराणों में प्रसिद्ध है। १. ब्रह्म चारयितुं शीलं यस्याः सा ब्रह्मचारिणी-सच्चिदानन्दमय ब्रह्मस्वरूपकी प्राप्ति कराना जिनका स्वभाव हो, वे ‘ब्रह्मचारिणी’ हैं। २. चन्द्रः घण्टायां यस्याः सा-आह्लादकारी चन्द्रमा जिनकी घण्टामें स्थित हों, उन देवी का नाम ‘चन्द्रघण्टा’ है। ३. कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुतः संसारः, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याः सा कूष्माण्डा। अर्थात् त्रिविध तापयुक्त संसार जिनके उदर में स्थित है, वे भगवती ‘कूष्माण्डा’ कहलाती हैं। ४. छान्दोग्यश्रुतिके अनुसार भगवती की शक्ति से उत्पन्न हुए सनत्कुमारका नाम स्कन्द है । उनकी माता होनेसे वे ‘स्कन्दमाता’ कहलाती हैं । ५. देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये देवी महर्षि कात्यायनके आश्रमपर प्रकट हुईं और महर्षिने उन्हें अपनी कन्या माना; इसलिये ‘कात्यायनी’ नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई । ६. सबको मारनेवाले कालकी भी रात्रि (विनाशिका) होनेसे उनका नाम ‘कालरात्रि’ है । ७. इन्होंने तपस्याद्वारा महान् गौरवर्ण प्राप्त किया था, अतः ये महागौरी कहलायों । ८. सिद्धि अर्थात् मोक्ष को देने वाली होने से उनका नाम ‘सिद्धिदात्री’ है। दिखायी देती। उन्हें शोक, दुःख और भयकी प्राप्ति नहीं होती ॥ ६-७॥ जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवीका स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि ! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम निःसन्देह रक्षा करती हो ॥८॥ चामुण्डादेवी प्रेतपर आरूढ़ होती हैं। वाराही भैंसेपर सवारी करती हैं। ऐन्द्रीका वाहन ऐरावत हाथी है। वैष्णवीदेवी गरुडपर ही आसन जमाती हैं ॥ ९॥ माहेश्वरी वृषभपर आरूढ़ होती हैं। कौमारीका वाहन मयूर है। भगवान् विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमलके आसनपर विराजमान हैं और हाथोंमें कमल धारण किये हुए हैं॥ १०॥ वृषभपर आरूढ़ ईश्वरीदेवीने श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मीदेवी हंसपर बैठी हुई हैं और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं॥ ११ ॥ इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकारकी योगशक्तियोंसे सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकारके आभूषणोंकी शोभासे युक्त तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित हैं ॥ १२ ॥ ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोधमें भरी हुई हैं और भक्तोंकी रक्षाके लिये स्थपर बैठी दिखायी देती हैं। ये शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मुसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथोंमें धारण करती हैं। दैत्योंक शरीरका नाश करना, भक्तोंको अभयदान देना और देवताओंका कल्याण करना-यही उनके शस्त्र-धारणका उद्देश्य है ॥ १३-१५॥ [कवच आरम्भ करनेके पहले इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये-] महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि ! तुम महान् भयका नाश करनेवाली हो, तुम्हें नमस्कार है ॥ १६ ॥ तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है। शत्रुओंका भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके! मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशामें ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति) मेरी रक्षा करे। अग्निकोणमें अग्निशक्ति, दक्षिण दिशामें वाराही तथा नैऋत्यकोणमें खड्गधारिणी मेरी रक्षा करे। पश्चिम दिशामें वारुणी और वायव्यकोणमें मृगपर सवारी करनेवाली देवी मेरी रक्षा करे ॥ १७-१८ ॥ उत्तर दिशामें कौमारी और ईशान कोणमें शूलधारिणीदेवी रक्षा करे। ब्रह्माणि! तुम ऊपरकी ओरसे मेरी रक्षा करो और वैष्णवीदेवी नीचेकी ओरसे मेरी रक्षा करे ॥ १९ ॥ इसी प्रकार शवको अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डादेवी दसों दिशाओंमें मेरी रक्षा करे। जया आगेसे और विजया पीछेकी ओरसे मेरी रक्षा करे ॥ २० ॥ वामभागमें अजिता और दक्षिणभागमें अपराजिता रक्षा करे। उद्योतिनी शिखाकी रक्षा करे। उमा मेरे मस्तकपर विराजमान होकर रक्षा करे ॥ २१ ॥ ललाटमें मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनीदेवी मेरी भौंहोंका संरक्षण करे। भौंहोंके मध्यभागमें त्रिनेत्रा और नथुनोंकी यमघण्टादेवी रक्षा करे ॥ २२ ॥ दोनों नेत्रोंके मध्यभागमें शंखिनी और कानोंमें द्वारवासिनी रक्षा करे। कालिकादेवी कपोलोंकी तथा भगवती शांकरी कानोंके मूलभागकी रक्षा करे ॥ २३ ॥ नासिकामें सुगन्धा और ऊपरके ओठमें चर्चिकादेवी रक्षा करे। नीचेके ओठमें अमृतकला तथा जिह्वामें सरस्वतीदेवी रक्षा करे ॥ २४ ॥ कौमारी दाँतोंकी और चण्डिका कण्ठप्रदेशकी रक्षा करे। चित्रघण्टा गलेकी घाँटीकी और महामाया तालुमें रहकर रक्षा करे ॥ २५ ॥ कामाक्षी ठोढ़ीकी और सर्वमंगला मेरी वाणीकी रक्षा करे। भद्रकाली ग्रीवामें और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड) में रहकर रक्षा करे ॥ २६ ॥ कण्ठके बाहरी भागमें नीलग्रीवा और कण्ठकी नलीमें नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधोंमें खङ्गिनी और मेरी दोनों भुजाओंकी वज्रधारिणी रक्षा करे ॥ २७ ॥ दोनों हाथोंमें दण्डिनी और अंगुलियोंमें अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी नखोंकी रक्षा करे। कुलेश्वरी कुक्षि (पेट)-में रहकर रक्षा करे ॥ २८ ॥ महादेवी दोनों स्तनोंकी और शोकविनाशिनीदेवी मनकी रक्षा करे। ललितादेवी हृदयमें और शूलधारिणी उदरमें रहकर रक्षा करे ॥ २९ ॥ नाभिमें कामिनी और गुह्यभागकी गुह्येश्वरी रक्षा करे। पूतना और कामिका लिंगकी और महिषवाहिनी गुदाकी रक्षा करे ॥ ३० ॥ भगवती कटिभागमें और विन्ध्यवासिनी घुटनोंकी रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली महाबलादेवी दोनों पिण्डलियोंकी रक्षा करे ॥ ३१ ॥ नारसिंही दोनों घुट्ठियोंकी और तैजसीदेवी दोनों चरणोंके पृष्ठभागकी रक्षा करे। श्रीदेवी पैरोंकी अंगुलियोंमें और तलवासिनी पैरोंके तलुओंमें रहकर रक्षा करे ॥ ३२॥ अपनी दाढ़ोंके कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकरालीदेवी नखोंकी और ऊर्ध्वकेशिनीदेवी केशोंकी रक्षा करे। रोमावलियोंके छिद्रोंमें कौबेरी और त्वचाकी वागीश्वरीदेवी रक्षा करे ॥ ३३ ॥ पार्वतीदेवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और मेदकी रक्षा करे। आँतोंकी कालरात्रि और पित्तकी मुकुटेश्वरी रक्षा करे ॥ ३४॥ मूलाधार आदि कमल-कोशोंमें पद्मावतीदेवी और कफमें चूडामणिदेवी स्थित होकर रक्षा करे। नखके तेजकी ज्वालामुखी रक्षा करे। जिसका किसी भी अस्त्रसे भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्यादेवी शरीरकी समस्त संधियोंमें रहकर रक्षा करे ॥ ३५ ॥ ब्रह्माणि! आप मेरे वीर्यकी रक्षा करें। छत्रेश्वरी छायाकी तथा धर्मधारिणी- देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धिकी रक्षा करे ॥ ३६ ॥ हाथमें वज्र धारण करनेवाली वज्रहस्तादेवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायुकी रक्षा करे। कल्याणसे शोभित होनेवाली भगवती कल्याणशोभना मेरे प्राणकी रक्षा करे ॥ ३७ ॥ रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श- इन विषयोंका अनुभव करते समय योगिनीदेवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी रक्षा सदा नारायणीदेवी करे ॥ ३८ ॥ वाराही आयुकी रक्षा करे। वैष्णवी धर्मकी रक्षा करे तथा चक्रिणी (चक्र धारण करनेवाली) देवी यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा विद्याकी रक्षा करे ॥ ३९ ॥ इन्द्राणि! आप मेरे गोत्रकी रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओंकी रक्षा करो। महालक्ष्मी पुत्रोंकी रक्षा करे और भैरवी पत्नीकी रक्षा करे ॥ ४० ॥ मेरे पथकी सुपथा तथा मार्गकी क्षेमकरी रक्षा करे। राजाके दरबारमें महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहनेवाली विजयादेवी सम्पूर्ण भयोंसे मेरी रक्षा करे ॥ ४१ ॥ देवि! जो स्थान कवचमें नहीं कहा गया है, अतएव रक्षासे रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो; क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो ॥ ४२ ॥ यदि अपने शरीरका भला चाहे तो मनुष्य बिना कवचके कहीं एक पग भी न जाय-कवचका पाठ करके ही यात्रा करे। कवचके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है, वहाँ-वहाँ उसे धन लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि करनेवाली विजयकी प्राप्ति होती है। वह जिस- जिस अभीष्ट वस्तुका चिन्तन करता है, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। वह पुरुष इस पृथ्वीपर तुलनारहित महान् ऐश्वर्यका भागी होता है॥ ४३-४४॥ कवचसे सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है। युद्धमें उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकोंमें पूजनीय होता है ॥ ४५ ॥ देवीका यह कवच देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओंके समय श्रद्धाके साथ इसका पाठ करता है, उसे दैवी कला प्राप्त होती है तथा वह तीनों लोकोंमें कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्युसे * रहित हो सौसे भी अधिक वर्षोंतक जीवित रहता है ॥ ४६-४७॥ अकाल मृत्यु अथवा अग्नि, जल, बिजली एवं सर्प आदिसे होनेवाली मृत्युको ‘अपमृत्यु’ कहते हैं। मकरी, चेचक और कोड़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कनेर, भाँग, अफीम, धतूरे आदिका स्थावर विष, साँप और बिच्छू आदिके काटनेसे चढ़ा हुआ जंगम विष तथा अहिफेन और तेलके संयोग आदिस बननेवाला कृत्रिम विष-ये सभी प्रकारके विष दूर हो जाते हैं, उनका कोई असर नहीं होता ॥ ४८ ॥ इस पृथ्वीपर मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकारके जितने मन्त्र-यन्त्र होते हैं, वे सब इस कवचको हृदयमें धारण कर लेनेपर उस मनुष्यको देखते ही नष्ट हो जाते हैं। ये ही नहीं, पृथ्वीपर विचरनेवाले ग्रामदेवता, आकाशचारी देवविशेष, जलके सम्बन्धसे प्रकट होनेवाले गण, उपदेशमात्रसे सिद्ध होनेवाले निम्नकोटिके देवता, अपने जन्मके साथ प्रकट होनेवाले देवता, कुलदेवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्षमें विचरनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदयमें कवच धारण किये रहनेपर उस मनुष्यको देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुषको राजासे सम्मान-वृद्धि प्राप्त होती है। यह कवच मनुष्यके तेजकी वृद्धि करनेवाला और उत्तम है ॥ ४९-५२॥ कवचका पाठ करनेवाला पुरुष अपनी कीर्तिसे विभूषित भूतलपर अपने सुयशके साथ-साथ वृद्धिको प्राप्त होता है। जो पहले कवचका पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डीका पाठ करता है, उसकी जबतक वन, पर्वत और काननॉसहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तबतक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतानपरम्परा बनी रहती है ॥ ५३-५४॥ फिर देहका अन्त होनेपर वह पुरुष भगवती महामायाके प्रसादसे उस नित्य परमपदको प्राप्त होता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ॥ ५५ ॥ वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याणमय शिवके साथ आनन्दका भागी होता है ॥५६॥ Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
2- अर्गलास्तोत्रम् श्री दुर्गा सप्तशती
अथार्गलास्तोत्रम् Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ॥
ॐ नमश्चण्डिकायै ॥
मार्कण्डेय उवाच Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ 1 ॥
ॐ चण्डिकादेवी को नमस्कार है।
मार्कण्डेयजी कहते हैं – जयन्ती1, मंगला2, काली3, भद्रकाली4 कपालिनी5, दुर्गा6, क्षमा7, शिवा8, धात्रिय, स्वाहा10 और स्वधा 11 इन नामोंसे प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो।
श्री दुर्गा सप्तशती
जय त्वं देवी चामुण्डे जय भूतार्थिहारिणि। Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
जय सर्वगते देवी कालरात्रि नमोऽस्तु ते ॥2॥
मधुकैटभविद्राविधात्रिवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 3॥
महिषासुरनिर्णासी भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 4॥
रक्तबीजवधे देवी चण्डमुण्डविनाशिनी।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 5॥
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 6 ॥
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 7 ॥
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 8 ॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 9 ॥
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 10 ॥
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 11 ॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 12 ॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 13 ||
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 14 ॥
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके |
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 15 ॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 16 ॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 17 ॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 18 ॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 19 ॥
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 20 ॥
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 21 ॥
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 22 ॥
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 23 ॥
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ 24 ॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम् ॥ ॐ ॥ 25 ॥
इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम्।
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
श्री दुर्गा सप्तशती Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
मार्कण्डये जी कहते हैं-जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा नामों से विख्यात जगदम्बिके ! तुम्हें मेरा नमस्कार है ॥1 ॥ देवि चामुण्डे ! तुम्हारी जय हो। समस्त प्राणियों की पीड़ा हरने वाली देवी! तुम्हारी जय हो। सब में व्याप्त रहने वाली देवी! तुम्हारी जय हो। कालरात्रि देवी ! तुम्हें नमस्कार हो ॥2 ॥ मधु और कैटभ का वध करने वाली तथा ब्रह्मा जी को वरदान देने वाली देवि । तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे रुप (आत्म स्वरुप ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो, यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥3 ॥ महिषासुर का नाश करने वाली, भक्तों को सुख प्रदान करने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे रुप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥4॥ रक्तबीज का वध और चण्ड-मुण्ड का विनाश करने वाली देवि! तुम मुझे रुप दो, जय-दो, यश दोऔर काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥5॥ शुम्भ-निशुम्भ तथा धूम्राक्ष का मर्दन (वध) करने वाली देवि! तुम रुप दो, जय दो, यश दो और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥6॥ सभी के द्वारा वन्दित युगल चरणों वाली तथा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करने वाली देवि ! तुम रुप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥7॥ देवि ! तुम्हारे रुप और चरित्र अचिन्त्य हैं। तुम समस्त शत्रुओं का नाश करने वाली हो। तुम मुझे रुप दो जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥8 ॥ पापों का नाश करने वाली देवि चण्डिके। जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें रुप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥9॥ रोगों का नाश करने वाली चण्डिके। जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें रुप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥10॥ चण्डिके ! इस संसार में जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं। उन्हें रुप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥11॥ मुझे सौभाग्य और आरोग्यता दो। परम सुख प्रदान करो, रुप दो जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥12॥ जो मुझसे द्वेष रखते हैं, उनका नाश और मेरे बल की वृद्धि करो। मुझे रुप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥13 || देवि मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम सम्पत्ति प्रदान करो। रुपदो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥14॥ अम्बिके ! देवता और असुर दोनों ही अपने मस्तक के मुकुट की मणियों को तुम्हारे चरणों पर घिसते रहते हैं। तुम रुप दों, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥15॥ तुम अपने भक्तजन को विद्वान, यशस्वी और लक्ष्मीवान (सम्पत्ति प्रदान करो) बनाओ तथा रुप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥16॥ प्रचण्ड दैत्यों के दर्प (घमण्ड) का दलन करने वाली चण्डिके ! मुझ शरणागत को रुप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥17॥ चतुर्भुज ब्रह्मा जी द्वारा प्रशंसित ब्बार भुजाधारिणी परमेश्वरि ! तुम रुप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥18॥ देवि अम्बिके ! भगवान विष्णु सदैव भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रुप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥19 || हिमाचल-कन्या पार्वती के पति महादेव जी के द्वारा प्रशासित होने वाली परमेश्वरि ! तुम मुझे रुप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥20॥ शचीपति इन्द्र के द्वारा सद्भाव से पूजित परमेश्वरि ! तुम मुझे रुप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥21॥ प्रचण्ड भुज दण्डों वाले दैत्यों के दर्प (घमण्ड) का विनाश करने वाली देवि ! तुम रुप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ॥22॥ देवि अम्बिके! तुम अपने भक्तजनों को सदा असीम आनन्द प्रदान करती रहती हो। मुझे रुप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो || 23 ।।मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार सागर से तारने वाली और उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो ।| 124 ॥ जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके सप्तशती रुपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जपसंख्या से मिलने वाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है। साथ ही वह प्रचुर सप्पत्ति भी प्राप्त करता है ॥25॥
इति देव्या अर्गलास्तोत्रं संपूर्णम्। Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
3- श्री दुर्गा सप्तशती कीलकम्
कीलकम्
अथ कीलकम्
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः। ॐ नमश्चण्डिकायै ॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ दिव्यज्ञानदेहाय राक्षसादिव्यचक्षुशे।
श्रेयः पुत्रनिमित्तय नमः सोमार्द्धधारिणे॥ 1 ॥
सर्वमेतद्विजानीयानमन्त्रणामभिकिलकम्।
सोऽपि क्षेमवाप्नोति सततं जाप्यत्परः ॥ 2॥
सिद्धयन्त्युच्छत्नादिनि वस्तुनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्धयति ॥ 3॥
न मंत्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जप्येन सिद्धयेत सर्वमुच्चतनादिकम् ॥ 4॥
समग्रान्यपि सिद्धयन्ति लोकश्चमीमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ॥5॥
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।
अंत्येर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम् ॥ 6 ॥
सोऽपि क्षेमवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामाष्टम्यां वा सम्मिलितः ॥ 7 ॥
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ॥ 8॥
यो निष्कीलां विधायनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः ॥ 9 ॥
न चैवाप्यत्तस्तस्य भयं क्वपिह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ॥ 10॥
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सिद्धमिदं प्रारभ्यते बुधैः ॥ 11 ॥
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदं शुभम् ॥ 12॥
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे अस्तुरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रपि ततः प्रारभ्यमेव तत् ॥ 13॥
ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यरोग्यसम्पदः।
शत्रुहनिः परो मोक्षः स्तुयते स न किं जनैः ॥ ॐ ॐ 14॥
इति देव्यः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
ॐ चण्डिकादेवी को नमस्कार है। Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
मार्कण्डेय जी कहते हैं- विशुद्ध ज्ञान ही मि शरीर हैं, त्रिवेद ही तीन दिव्य नेत्र हैं, जो कल्याण-प्राप्ति के साधन हैं तथा अपने मस्तक पर अर्धचंद्र का मुकुट धारण करते हैं, उन भगवान शिव को नमस्कार है ॥1॥
मंत्रों का जो अभिकीलक gहै अर्थात् मंत्रों की सिद्धि में विघ्न उपस्थित करने वाले शापरूपी कीलक का जो निवारण करने वाला है, उस सप्तशतीस्तोत्र को संपूर्ण रूप से ज्ञात करना (और उसकी पूजा करना ज्ञात करना), तथापि सप्तशती के अतिरिक्त अन्य मंत्रों के जप में भी जो असली लगा रहता है, वह भी कल्याण का भागी होता है ॥ 2॥
उसके भी उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध होते हैं तथा उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है; तथापि जो अन्य मन्त्रों का जप न करके केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्र से ही देवी की स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुतिमात्र से ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणीदेवी सिद्ध हो जाती हैं ॥ ३ ॥
उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के लिये मन्त्र, ओषधि तथा अन्य किसी साधन के उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती। बिना जप के ही उनके उच्चाटन आदि समस्त आभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं ॥ ४॥
इतना ही नहीं, उनकी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती हैं। लोगों के मनमें यह शंका थी कि ‘जब केवल सप्तशती की उपासना से अथवा सप्तशती को छोड़कर अन्य मन्त्रों की उपासना से भी समानरूप से सब कार्य सिद्ध होते हैं, तब इनमें श्रेष्ठ कौन-सा साधन है?’ लोगों की इस शंकाको सामने रखकर भगवान् शंकर ने अपने पास आये हुए जिज्ञासुओं को समझाया कि यह सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है ॥५॥
तदनन्तर भगवती चण्डिका के सप्तशती नामक स्तोत्र को महादेवजी ने गुप्त कर दिया। सप्तशती के पाठ से जो पुण्य प्राप्त होता है, उसकी कभी समाप्ति नहीं होती; किंतु अन्य मन्त्रों के जपजन्य पुण्य की समाप्ति हो जाती है। अतः भगवान् शिवने अन्य मन्त्रों की अपेक्षा जो सप्तशती की ही श्रेष्ठता का निर्णय किया, उसे यथार्थ ही जानना चाहिये ॥ ६ ॥
अन्य मन्त्रोंका जप करने वाला पुरुष भी यदि सप्तशती के स्तोत्र और जप का अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्णरूपसे ही कल्याण का भागी होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो साधक कृष्णपक्षकी चतुर्दशी अथवा अष्टमीको एकाग्रचित्त होकर भगवती की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूप से ग्रहण करता है, उसी पर भगवती प्रसन्न होती हैं; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार सिद्धि के प्रतिबन्धकरूप कील के द्वारा महादेवजी ने इस स्तोत्र को कीलित कर रखा है॥ ७-८॥
जो पूर्वोक्त रीतिसे निष्कीलन करके इस सप्तशतीस्तोत्र का प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारणपूर्वक पाठ करता है, वह मनुष्य सिद्ध हो जाता है, वही देवी का पार्षद होता है और वही गन्धर्व भी होता है ॥ ९ ॥
सर्वत्र विचारते इस संसार में रहने पर भी उसे कहीं भी भय नहीं होता। वह अपमृत्यु के वश में नहीं रहता तथा देह त्यागने के बाद अनंत मोक्ष प्राप्त कर लेता है। | 10 ॥
मूलतः कीलन को उनके परिहार को जानकर ही सप्तशती का पाठ आरंभ करना चाहिए। जो ऐसा नहीं करता, उसका नाश हो जाता है। इसलिए कीलक और निष्कीलन का ज्ञान प्राप्त करने पर ही यह स्तोत्र असाध्य होता है और विद्वान पुरुष इस असंवेदनशील स्तोत्र का ही पाठ आरंभ करते हैं ॥11 ॥
स्त्रियों में जो कुछ भी सौभाग्य आदि दिखायी देता है, वह सब देवी के प्रसाद का ही फल है। अतः इस कल्याणमय स्तोत्र का सदैव जप करना चाहिए ॥12 ॥
इस स्तोत्र का मन्द स्वर (धीमी आवाज) से पाठ करने पर अल्प (कम) फल की प्राप्ति होती है और उच्च स्वर (तेज आवाज) से पाठ करने पर पूर्ण फल प्राप्त होता है। अतः उच्च स्वर से ही इसका पाठ आरम्भ करना चाहिए ॥13 ॥
जिनके प्रसाद से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्ष की भी सिद्धि होती है, उस कल्याणमयी जगदम्बा की स्तुति मनुष्य क्यों नहीं करते ॥14॥
कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
श्री दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण पाठ (shree durga saptshati path):-
4- श्री दुर्गा सप्तशती वेदोक्तं रात्रिसूक्तम्
वेदोक्तं रात्रिसूक्तम्
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः ।
विश्वा अधि श्रियोऽधित ॥ १ ॥
ओर्वप्रा अमर्यानिवतो देव्युद्वतः ।
ज्योतिषा बाधते तमः ॥ २ ॥
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती ।
अपेदु हासते तमः ॥ ३ ॥
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः ॥ ४॥
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः ।
नि श्येनासश्चिदर्शिनः ॥ ५ ॥
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्ये ।
अथा नः सुतरा भव ॥ ६॥
उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित ।
उष ऋणेव यातय ॥ ७॥
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः ।
.रात्रि स्तोमं न जिग्युषे ॥ ८॥
नोट – ब्रह्ममायात्मिका रात्रिः परमेशलयात्मिका।
तदधिष्ठातृदेवी तु भुवनेशी प्रकीर्तिता ॥ (देवीपुराण)
महत्तत्त्वादि रूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रि रूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत्के जीवों के शुभा शुभ कर्मों को विशेषरूप से देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती हैं ॥१॥
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को, नीचे फैलने वाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं॥२॥
परा चिच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है ॥ ३॥
वे रात्रिदेवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं-ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं ॥४॥
उस करुणामयी रात्रिदेवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़ने वाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करने वाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं ॥५॥
हे रात्रिमयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्करसमुदाय को भी दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरनेयोग्य हो जाओ-मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ ॥६॥
हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है। तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो- जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो॥७॥
हे रात्रिदेवी! तुम दूध देने वाली गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। परम व्योमस्वरूप परमात्मा की पुत्री ! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँति मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो ॥८॥ Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
5- श्री दुर्गा सप्तशती तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्
तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्
ॐ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णोर्तुलां तेजसः प्रभुः ॥ 1 ॥
ब्रह्मोवाच :-
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका ।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता ॥ २ ॥
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः ।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा ॥ ३ ॥
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥ ४ ॥
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥ ५ ॥
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ॥ ६ ॥
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ॥ ७ ॥
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ॥ ८ ॥
खङ्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा ।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ॥ ९ ॥
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥ १० ॥
यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके ।
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा ॥ ११ ॥
यया त्वया जगत्त्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् ।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ १२॥
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ॥ १३ ॥
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता ।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥ १४॥
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु ।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ॥ १५॥
6-श्री दुर्गा सप्तशती श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्
श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् Shree durga saptshati (श्री दुर्गा सप्तशती )
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ॥ १ ॥
साब्रवीत् – अहं ब्रह्मस्वरूपिणी।
मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्।
शून्यं चाशून्यं च ॥ २॥
अहमानन्दानानन्दौ।
अहं विज्ञानाविज्ञाने।
अहं ब्रह्माब्रह्माणि वेदितव्ये।
अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि।
अहम्खिलं जगत् ॥ 3॥
वेदोऽहमवेदोऽहम्।
विद्याहमविद्याहम्।
अजहमनजहम्।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्छाहम् ॥ 4 ॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि।
अहमादित्यैरुत विश्वेदेवैः।
अहं मित्रवरुणावुभौ विभर्मि।
अहमिन्द्राग्नि अहमश्विनावुभौ ॥5॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि।
अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्राह्मणमुत् प्रजापतिं दधामि ॥ 6 ॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति ॥ ७॥
ते देवा अब्रुवन् – नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥ ८ ॥
तामग्निवर्णा तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गा देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः ॥ ९ ॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ॥ १० ॥
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥ ११॥
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥ १२ ॥
अदितिर्हाजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ १३ ॥
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ॥ १४ ॥
एषाऽऽत्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी। पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा। एषा श्रीमहाविद्या ।
य एवं वेद स शोकं तरति ॥ १५ ॥
नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ॥ १६॥
सैषाष्टौ वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः।
सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ।
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी।
सैषा सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि । प्रजापतीन्द्रमनवः ।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम् ॥
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ॥ १७ ॥
वियदीकारसंयुक्त वीतिहोत्रसमन्वितम् ।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥ १८॥
श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् . ४९ एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः ।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥ १९ ॥
वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः | नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः |
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥ २० ॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातः सूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्याँ वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ॥ २१॥
नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् ॥ २२॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥ २३॥
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता * शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ २४ ॥
तां दुर्गा दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥ २५ ॥
इदमथर्वशीर्ष योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति ।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चा स्थापयति-शतलचं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धि न विन्दति ।
शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः ।
दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ॥ २६ ॥
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति ।
निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति ।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति ।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्योपनिषत् ॥
ॐ सभी देवता देवीके समीप गये और नम्रतासे पूछने लगे- हे महादेवि ! तुम कौन हो?॥१॥
उसने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है॥२॥
अब यहाँ अर्थसहित देव्यथर्वशीर्ष दिया जाता है। अथर्ववेदमें इसकी बड़ी महिमा बतायी गयी है । इसके पाठसे देवीकी कृपा शीघ्र प्राप्त होती है, यद्यपि सप्तशतीपाठका अंग बनाकर इसका अन्यत्र कहीं उल्लेख नहीं हुआ है तथापि यदि सप्तशतीस्तोत्र आरम्भ करनेसे पूर्व इसका पाठ कर लिया जाय तो बहुत बड़ा लाभ हो मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य-जगत् मैं ही हूँ ॥ ३॥
वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ॥४॥
मैं रुद्रों और वसुओंके रूपमें संचार करती हूँ। मैं आदित्यों और विश्वेदेवोंके रूपोंमें फिरा करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनोंका, इन्द्र एवं अग्निका और दोनों अश्विनीकुमारोंका भरण-पोषण करती हूँ॥५॥
मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ॥ ६॥ सकता है। इस उद्देश्य से हम रात्रिसूक्त के बाद इसका समावेश करते हैं। आशा है, जगदम्बा के उपासक इससे संतुष्ट होंगे। देवों को उत्तम हवि पहुँचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत्की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञा होंमें (यजन करने योग्य देवों में) मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धिवृत्ति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है ॥७॥
तब उन देवोंने कहा-देवीको नमस्कार है। बड़े-बड़ोंको अपने-अपने कर्तव्यमें प्रवृत्त करनेवाली कल्याणकर्मीको सदा नमस्कार है। गुणसाम्या- वस्थारूपिणी मंगलमयी देवीको नमस्कार है। नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं॥८॥
उन अग्निके-से वर्णवाली, ज्ञानसे जगमगानेवाली, दीप्तिमती, कर्मफलप्राप्तिके हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गादेवीकी हम शरणमें हैं। असुरोंका नाश करनेवाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है॥९॥
प्राणरूप देवोंने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणीको उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकारके प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनुतुल्य आनन्ददायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग्रूपिणी भगवती उत्तम स्तुतिसे संतुष्ट होकर हमारे समीप आये ॥ १० ॥
कालका भी नाश करनेवाली, वेदोंद्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवतीको हम प्रणाम करते हैं ॥ ११॥
हम महालक्ष्मीको जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणीका ही ध्यान करते हैं। वह देवी हमें उस विषयमें (ज्ञान-ध्यानमें) प्रवृत्त करें ॥ १२॥
हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए ॥ १३॥
काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि-इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स-वर्ण, मातरिश्वा-वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः गुहा (हो), स, क, ल-वर्ण और माया (ही) – यह सर्वात्मिका जगन्माताकी मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ॥ १४॥
[शिवशक्त्यभेदरूपा, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मिका, सरस्वती-लक्ष्मी-गौरीरूपा, अशुद्ध- मिश्र-शुद्धोपासनात्मिका, समरसीभूत-शिवशक्त्यात्मक ब्रह्मस्वरूपका निर्विकल्प ज्ञान देनेवाली, सर्वतत्त्वात्मिका महात्रिपुरसुन्दरी-यही इस मन्त्रका भावार्थ है। यह मन्त्र सब मन्त्रोंका मुकुटमणि है और मन्त्रशास्त्रमें पंचदशी आदि श्रीविद्याके नामसे प्रसिद्ध है। इसके छः प्रकारके अर्थ अर्थात् भावार्थ, वाच्यार्थ, सम्प्रदायार्थ, लौकिकार्थ,रहस्यार्थ और तत्त्वार्थ ‘नित्यषोडशिकार्णव’ ग्रन्थमें बताये गये हैं। इसी प्रकार ‘वरिवस्यारहस्य’ आदि ग्रन्थोंमें इसके और भी अनेक अर्थ दिखाये गये हैं। श्रुतिमें भी ये मन्त्र इस प्रकारसे अर्थात् क्वचित् स्वरूपोच्चार, क्वचित् लक्षणा और लक्षित लक्षणासे और कहीं वर्णके पृथक् पृथक् अवयव दर्शाकर जान- बूझकर विश्रृंखलरूपसे कहे गये हैं। इससे यह मालूम होगा कि ये मन्त्र कितने गोपनीय और महत्त्वपूर्ण हैं।] ये परमात्माकी शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। ये ‘श्रीमहाविद्या’ हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोकको पार कर जाता है॥ १५ ॥
भगवती! तुम्हें नमस्कार है। माता! सब प्रकारसे हमारी रक्षा करो ॥ १६ ॥
(मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वसु हैं; वही ये एकादश रुद्र हैं; वही ये द्वादश आदित्य हैं; वही ये सोमपान करनेवाले और सोमपान न करनेवाले विश्वेदेव हैं; वही ये यातुधान (एक प्रकारके राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं; वही ये सत्त्व-रज-तम हैं; वही ये ब्रह्म-विष्णु- रुद्ररूपिणी हैं; वही ये प्रजापति-इन्द्र-मनु हैं; वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं; वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं; उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष देनेवाली, अन्तरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेनयोग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवीको हम सदा प्रणाम करते हैं॥ १७॥
वियत्-आकाश (ह) तथा ‘ई’ कारसे युक्त, वीतिहोत्र-अग्नि (र)- सहित, अर्धचन्द्र ()-से अलंकृत जो देवीका बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करनेवाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञानके सागर हैं। (यह मन्त्र देवीप्रणव माना जाता है। ॐकारके समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है। संक्षेपमें इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान-क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है।॥ ॥ १८-१९॥
वाणी (एँ), माया (हीं), ब्रह्मसू-काम (क्ली), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकारसे युक्त (चा), सूर्य (म), ‘अवाम श्रोत्र’- दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वारसे युक्त (मुं), टकारसे तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् ‘आ’ से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त (यै) और ‘विच्चे’ यह नवार्णमन्त्र उपासकोंको आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देनेवाला है ॥ २०॥
[इस मन्त्रका अर्थ- हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पानेके लिये हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी-महासरस्वती- स्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूप रज्जुकी दृढ़ ग्रन्थिको खोलकर मुझे मुक्त करो।] हत्कमलके मध्यमें रहनेवाली, प्रातःकालीन सूर्यके समान प्रभावाली, पाश और अंकुश धारण करनेवाली, मनोहर रूपवाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथोंवाली, तीन नेत्रोंसे युक्त, रक्तवस्त्र परिधान करनेवाली और कामधेनुके समान भक्तोंके मनोरथ पूर्ण करनेवाली देवीको मैं भजता हूँ॥ २१ ॥
महाभयका नाश करनेवाली, महासंकटको शान्त करनेवाली और महान् करुणाकी साक्षात् मूर्ति तुम महादेवीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २२॥
जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते – इसलिये जिसे अज्ञेया कैहते हैं, जिसका अन्त नहीं मिलता- इसलिये जिसे अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिसका जन्म समझमें नहीं आता- इसलिये जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है- इसलिये जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही विश्वरूपमें सजी हुई है-इसलिये जिसे नैका कहते हैं, वह इसीलिये अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहाती हैं ॥ २३ ॥
सभी मंत्रों में ‘मातृ का’ – मूलाक्षररूप से रहने वाली, शब्दों में (अर्थ)-रूप से रहने वाली, ज्ञानों में ‘चिन्मयतीता’, शून्यों में ‘शून्यसाक्षिणी’ तथा रैना और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हैं, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध ज्ञान हैं॥ 24॥
उन दुर्विज्ञेय, दुराचारनायक और संसारसागर से तारने वाली दुर्गादेवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 25 ॥
इस अथर्वशीर्षका का जो अध्ययन किया जाता है, उसे पांचों अथर्वशीर्षकोंके जपका फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्षक को न जानकर जो मूर्ति स्थापना होती है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता। अष्टादशत् (108 बार) जप (इत्यादि) इसकी पुरश्चरण विधि है। जो दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से बड़े पैमाने पर संकटों को पार कर जाता है ॥ 26 ॥
ऐसा कहा जाता है कि सांयकाल में पढ़ने वाला दिन मे हूए पापो को नाश करता है प्रातः काल मे अध्ययन करने वाला रात्रि मे किये हूए पापो को रात में हूए पापों का नशा करता है। ‘ चिन्मयानंद’ भी एक पाठ है।
7- श्री दुर्गा सप्तशती नवार्णविधिः
नवार्णविधिः
इस प्रकार रात्रिसूक्त और देव्यथर्वशीर्ष का पाठ करने के पश्चात् निम्नांकित रूप से नवार्णमन्त्र के विनियोग, न्यास और ध्यान आदि करे।
श्रीगणपतिर्जयति। ‘ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, ऐ बीजम्, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।
इसे पढ़कर जल गिराये।
नीचे लिखे न्यासवाक्यों में से एक-एक का उच्चारण करके दाहिने हाथ की अँगुलियों से क्रमशः सिर, मुख, हृदय, गुदा, दोनों चरण और नाभि-इन अगोंका स्पर्श करे।
ऋष्यादिन्यासः
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः, शिरसि ।
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमः, मुखे।
महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती देवताभ्यो नमः –
हृदि ऐं बीजाय नमः – गुह्ये |
ह्रीं शक्तये नमः – पादयोः
क्लीं कीलकाय नमः – नाभौ
अब नीचे लिखे मंत्र से हाथों की शुद्धि करके करन्यास करें- मंत्र–
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै ।
इस मूल मन्त्र से हाथों की शुद्धि करके करन्यास करे।
करन्यास :
करन्यास में हाथ की अंगुलियों, हथेलियों और हाथ के पृष्ठ भाग में मंत्रों का न्यास (स्थापन) किया जाता है। इसी तरह अंगन्यास में हृदयादि अंगों में मंत्रों की स्थापना होती है। मंत्रों को चेतन और मूर्तिमान मानकर उन-उन अंगों का नाम लेकर उन मंत्रमय देवताओं का स्पर्श और वन्दन किया जाता है। ऐसा करने से पाठ करने वाला स्वयं मंत्रमय होकर मंत्र देवताओं द्वारा सुरक्षित हो जाता है। उसकी आत्म-शुद्धि हो जाती है तथा दिव्य बल भी प्राप्त होता है।
ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः – दोनों हाथों की तर्जनी अंगुलियों से दोनों अंगूलों का स्पर्श करें।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः – दोनों हाथों के अंगूठों से दोनों तर्जनी अंगुलियों का स्पर्श करें।
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः – अंगूठों से मध्यमा अंगुलियों का स्पर्श करें।
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः – अनामिका अंगुलियों का स्पर्श करें।
ॐ विच्चै कनिष्ठिकाभ्यां नमः कनिष्ठिका अंगुलियों का स्पर्श करें।
ॐ ऐं ह्रीं कलीं चामुण्डायै विच्च करतल कर पृष्ठभ्यां नमः – हथेलियों और उनके पृष्ठ भागों का परस्पर स्पर्श करें।हृदयादिन्यास
इसमें दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से हृदय आदि अंगों का स्पर्श किया जाता है।
ॐ ऐं हृदयाय नमः – दाहिने हाथ की पांचों अंगुलियों से हृदय का स्पर्श करें।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा – सिर का स्पर्श
ॐ क्लीं शिखायै वषट् – शिखा (चोटी) का स्पर्श
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् – दाहिने हाथ की अंगुलियों से बायें कंधे का और बायें हाथ की अंगुलियोंसे दाहिने कंधे का साथ ही स्पर्श करें।
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् दाहिने हाथ की अंगुलियों के अग्रभाग सेदोनों नेत्रों और ललाट के मध्य भाग का स्पर्श करें।ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्च अस्त्राय फट् – दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले आयेंऔर तर्जनी तथा मध्यमा अंगुलियों से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजायें।
अक्षरन्यास
नीचे लिखा मंत्र पढ़कर क्रमशः शिखा आदि का दाहिने हाथ की अंगुलियों से स्पर्श करें-
ॐ ऐं नमः, शिखायाम् (शिखा का स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं नमः, दक्षिण नेत्रे (दायीं आँख का स्पर्श करें)
ॐ क्लीं नमः, वामनेत्रे (बायीं आँख का स्पर्श करें)
ॐ चां नमः, दक्षिणकर्णे (दाहिने कान का पर्श)
ॐ मुं नमः, वामकर्णे (बायें कान का स्पर्श)
ॐ डां नमः, दक्षिणनासापुटे (नाक के दाहिने छिद्र का स्पर्श)
ॐ यै नमः, वामनासापुटे (नाक के बायें छिद्र का स्पर्श)
ॐ वि नमः, मुख (मुख का स्पर्श करें)
ॐ च्चे नमः, गुह्ये (गुह्य भाग का स्पर्श करें)
इस प्रकार न्यास करके मूलमंत्र से आठ बार दोनों हाथों द्वारा सिर से लेकर पैर तक सभी अंगों का स्पर्श करें। फिर प्रत्येक दिशा में चुटकी बजाते हुए न्यास करें-
दिड्न्यास
ॐ ऐं प्राच्यै नमः । ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः । ॐ ह्रीं दक्षिणायै नमः । ॐ हीं नैत्रऋत्यै नमः । ॐ क्लीं प्रतीच्यै नमः । ॐ क्लीं वायव्यै नमः । ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः । ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः । ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे उर्ध्वायै नमः । ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः ।
ध्यानम्
खड्गं चक्रगदेषु चाप परिघाञ्छूलं भुशुण्डी शिरः शंखं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वांगभूषावृताम्। नीलाश्मद्युति मास्य पाद दशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम् ॥1 ॥ अक्षस्त्रक्वपरशुं गदेषु कुलिशं पद्मं धनुः कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् । शूलं पास सुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सौरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ॥2 ।। घण्टाशूलहलानि शंख मुसले चक्रं धनुः सायकः हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्त विलसच्छी तांशुतुल्य प्रभाम्। गौरी देह समुद्भवाम् त्रिजगतामाधारभूतां महा- पूर्वामत्र सरस्वती मनु भजे शुम्भादि दैत्यार्दिनीम् ॥३ ।।
भगवान विष्णु के सो जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिए कमल से उत्पन्न ब्रह्मा जी ने जिनका स्तवन किया था। उन महाकाली देवी का मैं ध्यान करता हूँ। वे अपने दस भुजाओं में खड्ग, चक्र, गदा, वाण-धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती है। उन महाकाली के तीन नेत्र हैं। वे अपने समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। उनके शरीर की दिव्य कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं ॥1 ॥मैं कमल के आसन पर विराजमान प्रसन्न मुख वाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का ध्यान करता हूँ। जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, वाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, शंख, घण्टा, मधु-पात्र शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं ॥2॥ जो देवी अपने कर कमलों में घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और वाण धारण करती है। शरद ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा की तरह जिनकी मनोहर कान्ति है। जो देवी तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का विनाश करने वाली हैं तथा जिनका शरीर गौरी के शरीर से प्रकट हुआ है। उन महा सरस्वती देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥3 11उपरोक्त विधि से ध्यान क्रिया सम्पन्न करने के पश्चात् नीचे लिखे मंत्र से माला की पूजा करें-
“ॐ ह्रीं अक्षमालिकायै नमः“माला की पूजा करने के बाद निम्न मंत्र का पाठ करते हुए प्रार्थना करें-
प्रार्थना
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्ति स्वरुपिणी ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृहणाम् दक्षिणे करे।
जपकाले च सिद्धयर्थं प्रसीद मम सिद्धये ॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि-देहि सर्वमंत्रार्थ साधिनी साधय साधय सर्व सिद्धिं परिकल्पय में स्वाहा।
इसके बाद 108 बार “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै” मंत्र का जप करें।
8- श्री दुर्गा सप्तशती सप्तशतीन्यासः
सप्तशतीन्यास
• श्रीदुर्गासप्तशत्याम् •
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥
इस श्लोक को पढ़कर देवी के वामहस्त में जप निवेदन करे। सप्तशतीन्यासः
तदनन्तर सप्तशती के विनियोग, न्यास और ध्यान करने चाहिये। न्यामयी प्रणाली पूर्ववत् है-
ऋषयः , प्रथममस्तुचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्र श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरतयो देवताः, गायत्र्युष्णुस्तुभेछंदंसि, नंदशाकंभरीभीमाः शक्तयः, रक्तदंतिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि, अग्निवायुसूर्यस्तत्त्वनि, ऋग्यजुःसामवेद ध्याननि, सकलकामनासिद्धये श्रीमहाकालीमहास्वामीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यरते ज पे विनियोगः. ॐ खङ्गिनी शूलिनी घोरा गादिनी चक्रिणी तथा। शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥ अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ शुलेन पाहि नो देवी पाहि खड्गेन चम्बिके। घंटास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ॥ क्षमानिभ्यां नमः। ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतिच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे। ब्राह्मणेनात्मशुलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरी ॥ मध्यमाभ्यां नमः। ॐ सौम्यानि अर्थात् रूपाणि त्रैलोक्ये विचारन्ति ते। अर्थात चतुर्थघोराणि तै रक्षास्मांसत्था भुवम् ॥ अनामिकाभ्यां नमः। ॐ खड्गशूलगदादिनि अर्थात् चास्त्राणि तेऽम्बिके। करपल्लवसङ्गिनि तैरस्मान रक्ष सर्वतः॥ कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते। भयेभ्यस्त्रहि नो देवी दुर्गे देवी नमोऽस्तु तेरे॥ करतलकरप्रजाभ्यां नमः।
ॐ खङ्गिनी शूलिनी घोरा0-हृदय नमः।
ॐ शुलेन पाहि नो देवि0 – शिरसे स्वाहा।
ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतिच्यां च0-शिखायै वषट्।
ॐ सौम्यानि अर्थात् रूपाणि0-कवचाय हुम्।
ॐ खड्गशूलगदादिनि0- उत्सवत्रयै वौषट्।
ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे0 – अस्त्राय फट्। ध्यानम् विद्युद्दमसमप्रभां मृगपतिस्कंधस्थितां भीषणां कन्याभिः करावालखेतविलसद्धस्ताभिरासेविताम्। हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चपं गुणं मोक्षनीं बिभ्राणमनलात्मिकां शशिधरां दुर्गा त्रिनेत्रां भजे ॥
इसके बाद प्रथम चरित्रका विनियोग और ध्यान करके ‘मार्कण्डेय उवाच’ से सप्तशतीका पाठ आरम्भ करे। प्रत्येक चरित्रका विनियोग मूल सप्तशतीके साथ ही दिया गया है तथा प्रत्येक अध्यायके आरम्भमें अर्थसहित ध्यान भी दे दिया गया है। पाठ प्रेमपूर्वक भगवतीका ध्यान करते हुए करे। मीठा स्वर, अक्षरोंका स्पष्ट उच्चारण, पदोंका विभाग, उत्तम स्वर, धीरता, एक लयके साथ बोलना-ये सब पाठकोंके गुण हैं। जो पाठ करते समय रागपूर्वक गाता, उच्चारणमें जल्दबाजी करता, सिर हिलाता, अपनी हाथसे लिखी हुई पुस्तकपर पाठ करता, अर्थकी जानकारी नहीं रखता और अधूरा ही मन्त्र कण्ठस्थ करता है, वह पाठ करनेवालोंमें अधम माना गया है। जबतक अध्यायकी पूर्ति न हो, तबतक बीचमें पाठ बंद न करे। यदि प्रमादवश अध्यायके बीचमें पाठका विराम हो जाय तो पुनः प्रति बार पूरे अध्यायका पाठ करे।
अज्ञानवश पुस्तक हाथ में लेकर पाठ करने का फल आधा ही होता है। स्तोत्र का पाठ मानसिक नहीं, वाचिक होना जन्मभूमि। वाणी से उनका स्पष्ट उच्चावरण ही उत्तम माना गया है। बहुत जोर-जोर से बोलना तथा पाठ में उतावलिया करना अनुपयुक्त है। यत्न निरर्थक शुद्ध एवं स्थिरचित्त से पाठ करना स्मारक। यदि पाठ कंठस्थ न हो तो पुस्तक( आर्टिकल )से करे। अपने हाथ से लिखे हुए या ब्राह्मण के हाथ से लिखे गए स्तोत्र का पाठ न करें। यदि एक सहस्र से अधिक श्लोक या मन्ट्रोन का ग्रन्थ हो तो पुस्तक देखना ही पाठ करे; इससे कम श्लोक हो तो उन्हें कंठस्थ करके बिना किताब के भी पढ़ा जा सकता है। अध्याय समाप्त होने पर ‘इति’, ‘वध’, ‘अध्याय’ तथा ‘समाप्त’ शब्दों का उच्चारण नहीं करना।
ध्रुवम्। १. अज्ञानात्स्थापिते हस्ते पाठे ह्यर्धफलं न मानसे दुर्गा पठेत्स्तोत्रंदुर्गा वाचिकं तु प्रशस्यते ॥
श्री दुर्गा सप्तशती
- उच्चैः पाठं निषिद्धं स्यात्त्वरां च परिवर्जयेत् । पठितव्यं शुद्धेनाचलचित्तेन प्रयत्नतः ॥
श्री दुर्गा सप्तशती
- कण्ठस्थपाठाभावे तु पुस्तकोपरि वाचयेत्। पठेत् ॥ न स्वयं लिखितं स्तोत्रं नाब्राह्मणलिपिं सहस्रादधिकं यदि ।
• पुस्तके वाचनं शस्तं ततो न्यूनस्य तु भवेद् वाचनं पुस्तकं विना ॥
श्री दुर्गा सप्तशती
- अध्यायकी पूर्ति होने पर यों कहना चाहिये- ‘श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये प्रथमः ॐ तत्सत्।‘ इसी प्रकार ‘द्वितीयः’, ‘तृतीय:’ आदि कहकर समाप्त करना चाहिये।
श्री दुर्गा सप्तशती : सप्तशतीन्यास :
4- श्री दुर्गा सप्तशती अध्याय
१-श्री दुर्गा सप्तशती प्रथम अध्याय :-
मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवती की महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसंग सुनाना के बारे मे बताया गया है | श्री दुर्गा सप्तशती shree durga saptshati
श्री दुर्गा सप्तशती अधिक पढ़े –श्री दुर्गा सप्तशती प्रथम अध्याय…..
२- श्री दुर्गा सप्तशती द्वितीय अध्याय :-
देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध के बारे मे वर्णन है |
श्री दुर्गा सप्तशती अधिक पढ़े –श्री दुर्गा सप्तशती दुतीय अध्याय…..
३-श्री दुर्गा सप्तशती तृतीय अध्याय :-
सेनापतियों सहित महिषासुर का वध के बारे मे वर्णन है |
श्री दुर्गा सप्तशती अधिक पढ़े – श्री दुर्गा सप्तशती तृतीय अध्याय…..
४-श्री दुर्गा सप्तशती चतुर्थ अध्याय :-
इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति..के बारे मे वर्णन है |
श्री दुर्गा सप्तशती अधिक पढ़े –श्री दुर्गा सप्तशती चतुर्थ अध्याय…..
५-श्री दुर्गा सप्तशती पंचम अध्याय :-
देवताओं द्वारा देवी की स्तुति, चण्ड-मुण्ड के मुख से अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना.इस बारे मे वर्णन है |
६- श्री दुर्गा सप्तशती षष्ठ अध्याय :-
षष्ठ अध्याय में धूम्रलोचन-वध के बारे मे वर्णन है |
७- श्री दुर्गा सप्तशती सप्तम अध्याय-
सप्तम अध्याय में चण्ड और मुण्ड का वध के बारे मे वर्णन है |
८- श्री दुर्गा सप्तशती अष्टम अध्याय-
अष्टम अध्याय मे रक्तबीज-वध के वध के बारे मे वर्णन है |
९- श्री दुर्गा सप्तशती नवम अध्याय –
निशुम्भ-वध के बारे मे बताया गया है –
१०- श्री दुर्गा सप्तशती दशम अध्याय-
शुम्भ-वध के बारे मे बताया गया है –
११- श्री दुर्गा सप्तशती एकादश अध्याय-
देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी- द्वारा देवताओं को वरदान.
१२- श्री दुर्गा सप्तशती द्वादश अध्याय-
देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
१३-श्री दुर्गा सप्तशती त्रयोदश अध्याय-
सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान
5- श्री दुर्गा सप्तशती उपसंहारः–
1- ऋग्वेदोक्तं देवीसूक्तम्….
ऋग्वेदोक्तं देवीसूक्तम् श्री दुर्गा सप्तशती
ॐ अहमित्यष्टर्चस्य सूक्तस्य वागंभृणि ऋषिः, सच्चित्सुखात्मकः सर्वगतः परमात्मा देवता, द्वितीयया ऋचो जगति, शिष्टानां त्रिष्टुप छंदः, देवीमहात्म्यपते विनियोगः।
ध्यानम्
ॐ सिंहस्थ शशिशेखर मर्कटप्रख्यायैश्चतुर्भिर्भुजैः
शङ्ख चक्रधनुशरणश्च दधति उत्सवैस्त्रिभिः शोभिता।
आमुक्ताङ्गद्हारकङकंरनत्काञ्चिरनकण्ठपुरा
दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लासत्कुण्डला ॥2
देवीसूक्तम् 3
ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत् विश्वदेवैः।
अहं मित्रवरुणोभा बिभर्म्याहमिन्द्राग्नि अहमश्विनोभा ॥ 1॥
अहं सोममहंसं बिभर्म्यहं त्वष्टार्मुत् पूषनं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानय सुन्वते ॥ 2॥
अहं राष्ट्रि संगमनि वसूनां चिकितुषि प्रथमा यज्ञानाम्।
तं मा देवा व्यादुधु : पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेश्यन्तिम् ॥ 3 ॥
मया सो अन्नमत्ती यो विपश्यति यः प्रणीति य ईं शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियान्ति श्रुति श्रुद्धिवं ते वदामि ॥ 4॥
अहमेव स्वयंमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृष्णोमि तं ब्राह्मणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥ 5 ॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृष्णोम्यहं द्यावापृथिवी अ विवेश ॥ 6 ॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्द्धनम योनिरपस्वन्तः समुद्रे |
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वो- तामुं द्याँ वर्षानोप स्पृशामि ॥ 7 ॥
अहमेव वात् इव प्रवामयार्भमाण भुवनानि विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना संबभुव ॥ 8॥ *
जो सिंहकी पीठपर विराजमान हैं, जिनके मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट है, जो मरकतमणिके समान कान्तिवाली अपनी चार भुजाओंमें शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, तीन नेत्रोंसे सुशोभित होती हैं, जिनके भिन्न-भिन्न अंग बाँधे हुए बाजूबंद, हार, कंकण, खनखनाती हुई करधनी और रुनझुन करते हुए नूपुरोंसे विभूषित हैं तथा जिनके कानोंमें रत्नजटित कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं, वे भगवती दुर्गा हमारी दुर्गति दूर करनेवाली हों।[महर्षि अम्भृणकी कन्याका नाम वाक्य। वह बड़ी ब्रह्मज्ञानिनी थी। उन्होंने देवीके साथ सिद्धांत प्राप्त कर ली थी। वहीके ये उद्गार हैं-मैं सच्चिदानंदमयी सर्वात्मा देवी रुद्र, वसु, आदित्य तथा विश्वेदेवगणोंके रूप में विचारती हूं। मैं ही मित्र और वरुण दोनों को, इंद्र और अग्निको तथा दोनों अश्विनीकुमारों को धारण करता हूं ॥1॥मैं ही शत्रुओंके नक्षत्र आकाशचारी देवता सोमको, त्वष्टा प्रजापतिको तथा पूषा और भगको को भी धारण करता हूँ। जो हविष्यासे चित्रण हो देवताओं को उत्तम हविष्याकी प्राप्ति कराता है और उन्हें सोमरस द्वारा तृप्त किया जाता है, वह यजमानके लिए मैं ही उत्तम यज्ञ फल और धन प्रदान करता हूं॥2॥ मैं संपूर्ण जगतकी अधीश्वरी, अपने उपासकोंको धनकी इच्छावाली, साक्षात्कार करनेयोग्य परमब्रह्मको अपनेसे आदर्शों में रूप दर्शन और पूजनीय देवताओं में प्रधान हूं। मैं प्रपंचरूपसे अनेक भावों में स्थित हूं। संपूर्ण भूतों में मेरा प्रवेश है। अनेक स्थानों में रहने वाले देवता जहां-जहां जो कुछ भी करते हैं, वह सब मेरे लिए करते हैं॥ 3॥ जो अन्न खाता है, वह मेरी शक्तिसे ही खाता है [क्योंकि मैं ही भोक्तृ-शक्ति हूं। इसी प्रकार जो बताता है, जो सांस लेता है और जो कही गई बात सुनता है, वह मेरी ही सहायता से कहा जाता है कि सभी कर्म करने में सक्षम होता है। जो मुझे इस रूप में नहीं पता, वे नके दर्शन के कारण ही दीन-दशाको प्राप्त होते हैं। हे बहुश्रुत! मैं पवित्र श्रद्धासे प्राप्त होनेवाले ब्रह्मतत्त्वका उपदेश देता हूं, सुनो- ॥4॥ मैं स्वयं ही वेदों और सेवितों द्वारा निर्मित इस दुर्लभ तत्त्वका का वर्णन करता हूँ। मैं-जिसकी पुरुष रक्षा करना चाहता हूँ, उस उसको सबकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ। उसीको सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्षज्ञानसम्पन्न ऋषि तथा उत्तम मेधाशक्तिसे युक्त बनाती हूँ॥५॥ मैं ही ब्रह्मद्वेषी हिंसक असुरोंका वध करनेके लिये रुद्रके धनुषको चढ़ाती हूँ। मैं ही शरणागतजनोंकी रक्षाके लिये शत्रुओंसे युद्ध करती हूँ तथा अन्तर्यामीरूपसे पृथ्वी और आकाशके भीतर व्याप्त रहती हूँ ॥ ६॥ मैं ही इस जगत्के पितारूप आकाशको सर्वाधिष्ठानस्वरूप परमात्माके ऊपर उत्पन्न करती हूँ। समुद्र (सम्पूर्ण भूतोंके उत्पत्तिस्थान परमात्मा)-में तथा जल (बुद्धिकी व्यापक वृत्तियों) में मेरे कारण (कारणस्वरूप चैतन्य ब्रह्म) की स्थिति है; अतएव मैं समस्त भुवनमें व्याप्त रहती हूँ तथा उस स्वर्गलोकका भी अपने शरीरसे स्पर्श करती हूँ ॥ ७ ॥ मैं कारणरूपसे जब समस्त विश्वकी रचना आरम्भ करती हूँ, तब दूसरोंकी प्रेरणाके बिना स्वयं ही वायुकी भाँति चलती हूँ, स्वेच्छासे ही कर्ममें प्रवृत्त होती हूँ। मैं पृथ्वी और आकाश दोनोंसे परे हूँ। अपनी महिमासे ही मैं ऐसी हुई हूँ॥८॥* इसके बाद तन्त्रोक्त देवीसूक्त दिया गया है, उसका भी पाठ करना चाहिये।
2- तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम्
तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम्.…श्री दुर्गा सप्तशती
तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम्.
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम ॥1 ॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्ये धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योस्नायै चेन्दुरुपिण्यै सुखायै सततं नमः ।।2 ॥
कल्याण्यै प्रणतां वृद्धयै सिद्धयै कुर्मो नमो नमः ।
नैऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥३ ॥
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्व कारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥4॥ श्री दुर्गा सप्तशती
अति सौम्यति रौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ॥5 ॥
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥6||
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्य भिधीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥7॥
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥8 ॥
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥७ ॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥10॥
या देवी सर्व भूतेषुच्छाया रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥11॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥12 ||
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥13 ।।
या देवी सर्व भूतेषु क्षान्ति रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥14॥
या देवी सर्वभूतेषु जाति रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥15॥
या देवी सर्व भूतेषु लज्जा रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥16॥
या देवी सर्व भूतेषु शान्ति रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥17॥
या देवी सर्व भूतेषु श्रद्धा रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥18॥
या देवी सर्व भूतेषु कान्ति रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥19 ।।
या देवी सर्व भूतेषु लक्ष्मी रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥20॥
या देवी सर्व भूतेषु वृत्ति रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥21॥
या देवी सर्व भूतेषु स्मृति रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥22||
या देवी सर्व भूतेषु दया रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥23 ।।
या देवी सर्व भूतेषु तुष्टि रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥24 ।।
या देवी सर्व भूतेषु मातृ रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥25॥
या देवी सर्व भूतेषु भ्रान्ति रुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥26॥
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानांचाखिलेषु या।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥27॥
चितिरुपेण या कृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत् ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥28 ।।
स्तुता सुरैः पूर्वम भीष्ट संश्रया-
त्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता ।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्य भिहन्तु चापदः || 29 ।।
या साम्प्रतं चोद्धत दैत्य तापितै-
रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते ।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः ।
सर्वापदो भक्ति विनम्रमूर्तिभिः ॥३० ॥
देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवम् भद्रा को प्रणाम है। हम लोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते है ।। 1 ॥ रौद्रा देवी को नमस्कार है। नित्या, गौरी एवम् धात्री को बारम्बार नमस्कार है। ज्योत्स्त्रामयी, चन्द्ररुपिणी एवम् सुख स्वरुपा देवी को सतत प्रणाम है ॥2॥ शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवम् सिद्धि रुपा देवी को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। नैर्ऋती (राक्षसों की लक्ष्मी), राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिव पत्नी) स्वरुपा जगदम्बा को बारम्बार नमस्कार है ॥3 ॥ दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से पार उतारने वाली) सारा (सबकी सारभूता) सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रा देवी को नमस्कार है || 4 ॥ अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररुपा देवी को हम नमस्कार करते हैं। जगत की आधार भूता देवी को बारम्बार नमस्कार है ॥5॥ जो देवी समस्त प्राणियों में विष्णु माया के नाम से कही जाती है। उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥6॥ जो देवी समस्त प्राणियों में चेतना कहलाती है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥7॥ जो देवी समस्त प्राणियों में बुद्धिरुप में स्थित हैं उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥8 ॥ जो देवी समस्त प्राणियों में निद्रारुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥9॥ जो देवी समस्त प्राणियों में क्षुधारुप में स्थित हैं उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥10॥ जो देवी समस्त प्राणियों में छाया रुप में स्थित हैं उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥11॥ जो देवी समस्त प्राणियों में शक्ति रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥12॥ जो देवी समस्त प्राणियों में तृष्णारुप में स्थित हैं उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥13॥ जो देवी समस्त प्राणियों में क्षान्ति (क्षमा) रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥14॥ जो देवी समस्त प्राणियों में जाति रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥15॥ जो देवी समस्त प्राणियों में लज्जा रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥16॥ जो देवी समस्त प्राणियों में शान्ति रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥17॥ जो देवी समस्त प्राणियों में श्रद्धा रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥18॥ जो देवी समस्त प्राणियों में कान्ति रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥19॥ जो देवी समस्त प्राणियों में लक्ष्मी रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥20॥ जो देवी समस्त प्राणियों में वृत्ति रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है || 21 || जो देवी समस्त प्राणियों में स्मृति रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥22॥ जो देवी समस्त प्राणियों में दया रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है । | 23 || जो देवी समस्त प्राणियों में तुष्टि रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥24॥ जो देवी समस्त प्राणियों में माता रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ।|| 25 |॥ जो देवी समस्त प्राणियों में भ्रान्ति रुप में स्थित है उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है, उनको बारम्बार नमस्कार है ।॥26॥ जो जीवों के इन्द्रियों की अधिष्ठात्री देवी एवम् समस्त प्राणियों में सैदव व्याप्त रहने वाली हैं उन व्याप्ति देवी को बारबार नमस्कार है ।| 27 || जो देवी चैतन्यरुप से इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥28॥ पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिसकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिनका स्तवन किया, वह कल्याण की साधन भूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करें तथा सारी आपत्तियों का नाश करें || 29 ॥ उद्दण्ड दैत्यों से सताये हुए हम सभी देवता जिस परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जाने पर तत्काल ही समस्त विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें ।॥30॥
३- प्राधानिकं रहस्यम्…
अथ प्राधानिकं रहस्यम् श्री दुर्गा सप्तशती
ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिनुष्टुपच्छन्दः, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलवापत्यर्थं जपे विनियोगः।
राजोवाच
भगवानावतार मे चण्डिकायास्त्वयोदिताः।
एतेषां प्रकृतिं ब्राह्मण प्रधानं वक्तुमर्हसि ॥1॥
आराध्याँ यन्मया देव्यः स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥2॥
ऋषिरुवाच
इदं रहस्यं परमनाखयेयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवाच्यं नराधिप॥ 3 ॥
सर्वस्याद्य महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी ।
लक्ष्यलक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता ॥ 4॥
मातुलुङ्ग गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि ॥ ५ ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा ।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा ॥ ६ ॥
शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी।
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥ ७ ॥
सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कित्तवरानना ।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा ॥ ८ ॥
खड्गपात्रशिरःखेटैरलङ्कृतचतुर्भुजा
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिरःस्त्रजम् ॥ ९ ॥
सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा ।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नमः ॥ १० ॥ श्रीदुर्गासप्तशत्याम्
तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥११॥
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा ।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया ॥ १२ ॥
इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभिः।
एभिः कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्नुते सुखम् ॥ १३ ॥
तामित्युक्त्वा महालक्ष्मीः स्वरूपमपरं नृप।
सत्त्वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ ॥ १४॥
अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी ।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ ॥ १५॥
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती ।
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी ॥ १६ ॥
अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम् ।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपतः ॥ १७॥
इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मीः ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगर्भों रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ ॥ १८ ॥
ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्रीः पद्ये कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम् ॥ १९ ॥
महाकाली भारती च मिथुने सृजतः सह।
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते ॥२०॥
नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम् ॥ २१ ॥
स रुद्रः शंकरः स्थाणुः कपर्दी च त्रिलोचनः ।
त्रयी विद्या कामधेनुः सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा ॥ २२ ॥
सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते ॥ २३ ॥
विष्णुः कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दनः।
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा ॥ २४ ॥
एवं युवतयः सद्यः पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जनाः ॥ २५ ॥
ब्रह्मणे प्रददौ पत्नीं महालक्ष्मी र्नृप त्रयीम्व ।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम् ॥ २६ ॥
स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत् ।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान् ॥ २७ ॥
अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ २८ ॥
पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशवः।
संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्वरः ॥ २९ ॥
महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्वमयीश्वरी ।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत् ॥ ३० ॥
नामान्तरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित् ।। ॐ ।। ३१ ।।
इति प्राधानिकं रहस्यं सम्पूर्णम् ।
ॐ सप्तशतीके इन तीनों रहस्योंके नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फलकी प्राप्तिके लिये जपमें इनका विनियोग होता है। राजा बोले– भगवन्! आपने चण्डिकाके अवतारोंकी कथा मुझसे कही। ब्रह्मन् ! अब इन अवतारोंकी प्रधान प्रकृतिका निरूपण कीजिये ॥ १ ॥ द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपके चरणोंमें पड़ा हूँ। मुझे देवीके जिस स्वरूपकी और जिस विधिसेआराधना करनी है, वह सब यथार्थरूपसे बतलाइये ॥ २ ॥ऋषि कहते हैं – राजन् ! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसीसे कहने-योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने- योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है ॥ ३ ॥ त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्यरूपसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं ॥४॥राजन् ! वे अपनी चार भुजाओंमें मातुलुंग (बिजौरेका फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तकपर नाग, लिंग तथा योनि-इन वस्तुओंको धारण करती हैं ॥ ५ ॥ तपाये हुए सुवर्णके समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्णके ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेजसे इस शून्य जगत्को परिपूर्ण किया है ॥ ६ ॥ परमेश्वरी महालक्ष्मीने इस सम्पूर्ण जगत्को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधिके द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया ॥७॥ वह रूप एक नारीके रूपमें प्रकट हुआ, जिसके शरीरकी कान्ति निखरे हुए काजलकी भाँति काले रंगकी थी, उसका श्रेष्ठ मुख दाढ़ोंसे सुशोभित था। नेत्र बड़े-बड़े और कमर पतली थी ॥ ८ ॥ उसकी चार भुजाएँ ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तकसे सुशोभित थीं। वह वक्षःस्थलपर कबन्ध (धड़) की तथा मस्तकपर मुण्डोंकी माला धारण किये हुए थी ॥ ९ ॥ इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियोंमें श्रेष्ठ तामसीदेवीने महालक्ष्मीसे कहा-‘माताजी ! आपको नमस्कार है। मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये ‘ ॥ १० ॥ तब महालक्ष्मीने स्त्रियोंमें श्रेष्ठ उस तामसीदेवीसे कहा-‘मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ, ॥ ११ ॥ महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया ॥ १२ ॥ ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मोंके द्वारा लोकमें चरितार्थ होंगे। इन नामोंके द्वारा तुम्हारे कर्मोंको जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है’ ॥ १३ ॥ राजन् ! महाकालीसे यों कहकर महालक्ष्मीने अत्यन्त शुद्ध सत्त्वगुणके द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमाके समान गौरवर्ण था ॥ १४॥ वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथोंमें अक्षमाला, अंकुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किये हुए थी। महालक्ष्मीने उसे भी नाम प्रदान किये ॥ १५॥ महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धिकी स्वामिनी) – ये तुम्हारे नाम होंगे ॥ १६ ॥ तदनन्तर महालक्ष्मीने महाकाली और महासरस्वतीसे कहा-‘देवियो ! तुम दोनों अपने-अपने गुणोंके योग्य स्त्री-पुरुषके जोड़े उत्पन्न करो’ ॥ १७॥उन दोनोंसे यों कहकर महालक्ष्मीने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुषका एक जोड़ा उत्पन्न किया। वे दोनों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञानसे सम्पन्न) सुन्दर तथा कमलके आसनपर विराजमान थे। उनमेंसे एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष ॥ १८॥ तत्पश्चात् माता महालक्ष्मीने पुरुषको ब्रह्मन् ! विधे! विरिंच! तथा धातः ! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्रीको श्री ! पद्मा ! कमला! लक्ष्मी ! इत्यादि नामोंसे पुकारा ॥ १९ ॥ इसके बाद महाकाली और महासरस्वतीने भी एक-एक जोड़ा उत्पन्न किया। इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥ २०॥ महाकालीने कण्ठमें नील चिह्नसे युक्त, लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले पुरुषको तथा गोरे रंगकी स्त्रीको जन्म दिया ॥ २१ ॥ वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचनके नामसे प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्रीके त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा- ये नाम हुए ॥ २२ ॥ राजन् ! महासरस्वतीने गोरे रंगकी स्त्री और श्याम रंगके पुरुषको प्रकट किया। उन दोनोंके नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥ २३ ॥उनमें पुरुषके नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा-इन नामोंसे प्रसिद्ध हुई ॥ २४॥ इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुषरूपको प्राप्त हुई। इस बातको ज्ञाननेत्रवाले लोग ही समझ सकते हैं। दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्यको नहीं जान सकते ॥ २५ ॥ राजन् ! महालक्ष्मीने त्रयीविद्यारूपा सरस्वतीको ब्रह्माके लिये पत्नीरूपमें समर्पित किया, रुद्रको वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेवको लक्ष्मी दे दी ॥ २६ ॥ इस प्रकार सरस्वतीके साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजीने ब्रह्माण्डको उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्रने गौरीके साथ मिलकर उसका भेदन किया ॥ २७ ॥ राजन् ! उस ब्रह्माण्डमें प्रधान (महत्तत्त्व) आदि कार्यसमूह-पंचमहाभूतात्मक समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत्की उत्पत्ति हुई ॥ २८ ॥ फिर लक्ष्मीके साथ भगवान् विष्णुने उस जगत्का पालन-पोषण किया और प्रलयकालमें गौरीके साथ महेश्वरने उस सम्पूर्ण जगत्का संहार किया ॥ २९ ॥महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्वमयी तथा सब सत्त्वोंकी अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकाररूपमें रहकर नाना प्रकारके नाम धारण करती हैं॥ ३०॥ सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरोंसे इन महालक्ष्मीका निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मीमात्र)-से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाणसे उनका वर्णन नहीं हो सकता ॥ ३१ ॥
4- वैकृतिकं रहस्यम्…श्री दुर्गा सप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
ऋषिरुवाच
ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चंडिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते ॥ 1 ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थं यां तुष्टावाम्बुजासनः ॥ 2॥ श्री दुर्गा सप्तशती
दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा ।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया ॥ ३ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप ।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रियः ॥ ४॥ श्री दुर्गा सप्तशती
खङ्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत् |
परिघं कार्मुकं शीर्षं निश्च्योतद्रुधिरं दधौ ॥ ५ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
रेणुका-माहात्म्य में बताया गया है, दाहिनी ओर के नीचे के हाथ में पान पात्र और ऊपर के हाथ में गदा है। बायीं ओर के ऊपर के हाथ में खेट तथा नीचे के हाथ में श्री फल है, परंतु वैकृतिक रहस्य में ‘दक्षिणाध: करक्रमात्’ कहकर जो क्रम दिखाया गया है, उसके अनुसार दाहिनी ओर के निचले हाथ में मातुलुंग, ऊपर वाले हाथ में गदा, बायीं ओर के ऊपर वाले हाथमें खेट तथा नीचे वाले हाथ में पान पात्र है। चतुर्भुजा महालक्ष्मीने क्रमशः तमोगुण और सत्त्वगुणरूप उपाधि के द्वारा अपने दो रूप और प्रकट किये, जिनकी क्रमशः महाकाली और महासरस्वती के नामसे प्रसिद्धि हुई। ये दोनों सप्तशतीके प्रथम चरित्र और उत्तर चरित्रमें वर्णित महाकाली और महासरस्वतीसे भिन्न हैं; क्योंकि ये दोनों ही चतुर्भुजा हैं और उक्त चरित्रों में वर्णित महाकालीके दस तथा महासरस्वती के आठ भुजाएँ हैं। चतुर्भुजा महाकाली के हाथों में खड्ग, पानपात्र, मस्तक और ढाल हैं; इनका क्रम भी पूर्ववत् ही है। चतुर्भुजा सरस्वती के हाथोंमें अक्षमाला, अंकुश, वीणा और पुस्तक शोभा पाते हैं। इनका भी पहले जैसा ही क्रम है। फिर इन तीनों देवियों ने स्त्री- पुरुष का एक-एक जोड़ा उत्पन्न किया। महाकाली से शंकर और सरस्वती, महालक्ष्मी से ब्रह्मा और लक्ष्मी तथा महासरस्वती से विष्णु और गौरी का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें लक्ष्मी विष्णु को, गौरी शंकर को तथा सरस्वती ब्रह्माजी को प्राप्त हुईं। पत्नीसहित ब्रह्माने सृष्टि, विष्णु ने पालन और रुद्रने संहार का कार्य सँभाला।
ऋषि कहते हैं –
राजन्! पहले जिन सत्त्वप्रधाना त्रिगुणमयी महालक्ष्मीकेतामसी आदि भेदसे तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामोंसे कही जाती हैं ॥१॥ तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णुकी योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभका नाश करनेके लिये ब्रह्माजीने जिनकी स्तुति की थी, उन्हींका नाम महाकाली है ॥२॥उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजलके समान काले रंगकी हैं तथा तीस नेत्रोंकी विशाल पंक्तिसे सुशोभित होती हैं ॥३॥ भूपाल! उनके दाँत और दाढ़ें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदाकी अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं ॥ ४॥ वे अपने हाथोंमें खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शंख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं ॥५॥
इन अवतारों का क्रम इस प्रकार है-
चतुर्भुजा महालक्ष्मी (मूल प्रकृति)
| | |
चतुर्भुजामहाकाली | चतुर्भुजा महासरस्वती
| | |
शंकर-सरस्वती ब्रह्मा और लक्ष्मी विष्णु और गौरी
एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम् ॥ ६ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा ।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मीः साक्षान्महिषर्मार्दनी ॥ ७ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला ।
रक्तमध्या रक्तपादा नीलजङ्गोरुरुन्मदा ॥ ८ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा ।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी ॥ ९ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाधःकरक्रमात् ॥ १० ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
अक्षमाला च कमलं बाणोऽसिः कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशुः शङ्खो घण्टा च पाशकः ॥ ११ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलुः ।
अलङ्कृतभुजामेभिरायुधैःकमलासनाम् ॥ १२ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमिमां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत् ॥ १३ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्वैकगुणाश्रया ।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी ॥ १४॥ श्री दुर्गा सप्तशती
दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत् ।
शङ्ख घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप ॥ १५ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति ।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी ॥ १६ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव ।|
उपासनं जगन्मातुः पृथगासां निशामय ॥ १७ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
ये महाकाली भगवान् विष्णुकी दुस्तर माया हैं। आराधना करनेपर ये चराचर जगत्को अपने उपासकके अधीन कर देती हैं ॥ ६ ॥ सम्पूर्ण देवताओंके अंगोंसे जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्तिसे युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुरका मर्दन करनेवाली हैं ॥७॥ उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जंघा और पिंडली नीले रंगकी हैं। अजेय होनेके कारण उनको अपने शौर्यका अभिमान है॥८॥ कटिके आगेका भाग बहुरंगे वस्त्रसे आच्छादित होनेके कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अंगराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्यसे सुशोभित हैं॥९॥ यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओंसे युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओरके निचले हाथोंसे लेकर बायीं ओरके निचले हाथोंतकमें क्रमशः जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है ॥ १० ॥ अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा,चक्र, त्रिशूल, परशु, शंख, घंटा, पाश, शक्ति, दण्ड, चर्म (ढाल), धनुर्धर, पानपात्र और कमण्डलु-इन आयुधोंसे भुजाये विभूषित हैं। वे कमलके आसनपर वनस्पति हैं, सर्वदेवमयी हैं और वनस्पति ईश्वरी हैं। राजन! जो भी महालक्ष्मीदेविका की पूजा करता है, वह सभी लोकों और देवताओं का भी स्वामी होता है॥ 11-13॥जो एकमात्र सत्त्वगुणके आश्रित हो पार्वतीजीके शरीरसे प्रकट हुई थीं तथा जिन्होंने शुम्भ नामक दैत्यका संहार किया था, वे साक्षात् सरस्वती कही गयी हैं ॥ १४॥ पृथ्वीपते! उनके आठ भुजाएँ हैं तथा वे अपने हाथोंमें क्रमशः बाण, मुसल, शूल, चक्र, शंख, घण्टा, हल एवं धनुष धारण करती हैं ॥ १५ ॥ ये सरस्वतीदेवी, जो निशुम्भका मर्दन तथा शुम्भासुरका संहार करनेवाली हैं, भक्तिपूर्वक पूजित होनेपर सर्वज्ञता प्रदान करती हैं ॥ १६ ॥राजन ! इस प्रकार चमत्कारी महाकाली आदि त्रिमूर्ति ताराके स्वरूप बताये, अब जगन्माता महालक्ष्मीकी तथा इन महाकाली आदि त्रिमूर्ति ताराकी पृथक्करण दर्शन श्रवण करो॥ 17॥
महालक्ष्म्यार्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती। श्री दुर्गा सप्तशती
दक्षिणातयोः पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम् ॥
विरञ्चिः स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या वामे देवतात्रयम्ल ॥ १९॥
अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानन।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत् ॥ २०॥ श्री दुर्गा सप्तशती
अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
दशानाना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा ॥ २१॥
कालमृत्यु च संपूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये।
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुर्निबर्हिणी॥ २२ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
नवास्याः शक्तयः पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ ।
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत् ॥ २३ ॥
अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रयाः ।
अष्टादशभुजा चैषा पूज्या महिषमर्दिनी ॥ २४ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती ।
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी ॥ २५ ॥
महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभुः ।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्तवत्सलाम् ॥ २६ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
अर्ध्यादिभिरलङ्कारैर्गन्धपुष्यैस्तथाक्षतैः
धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितैः ॥ २७ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
रुधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप।
( बलिमांसादिपूजेयं विप्रवर्ज्या मयेरिता ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
तेषां किल सुरामांसैर्वोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना ॥ २८ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
सकर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्तिभावसमन्वितैः ।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम् ॥ २९ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरतः सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम् ॥ ३० ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानसः ॥ ३१ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
जब महालक्ष्मीकी पूजा करनी हो, तब उन्हें मध्यमें स्थापित करके उनके दक्षिण और वामभागमें क्रमशः महाकाली और महासरस्वतीका पूजन करना चाहिये और पृष्ठभागमें तीनों युगल देवताओंकी पूजा करनी चाहिये ॥१८॥ महालक्ष्मीके ठीक पीछे मध्यभागमें सरस्वतीके साथ ब्रह्माका पूजन करे। उनके दक्षिणभागमें गौरीके साथ रुद्रकी पूजा करे तथा वामभागमें लक्ष्मीसहित विष्णुका पूजन करे। महालक्ष्मी आदि तीनों देवियोंके सामने निम्नांकित तीन देवियोंकी भी पूजा करनी चाहिये ॥ १९ ॥ मध्यस्थ महालक्ष्मीके आगे मध्यभागमें अठारह भुजाओंवाली महालक्ष्मीका पूजन करे। उनके वामभागमें दस मुखोंवाली महाकालीका तथा दक्षिणभागमें आठ भुजाओंवाली महासरस्वतीका पूजन करे ॥ २० ॥ राजन् ! जब केवल अठारह भुजाओंवाली महालक्ष्मीका अथवा दशमुखी कालीका या अष्टभुजा सरस्वतीका पूजन करना हो, तब सब अरिष्टोंकी शान्तिके लिये इनके दक्षिणभागमें कालकी और वामभागमें मृत्युकी भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। जब शुम्भासुरका संहार करनेवाली अष्टभुजादेवीकी पूजा करनी हो, तब उनके साथ उनकी नौ शक्तियोंका और दक्षिणभागमें रुद्र एवं वामभागमें गणेशजीका भी पूजन करना चाहिये (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती तथा चामुण्डा-ये नौ शक्तियाँ हैं)।
‘नमो देव्यै’ इस स्तोत्रसे महालक्ष्मीकी पूजा करनी चाहिये ॥ २१-२३ ॥ तथा उनके तीन अवतारोंकी पूजाके समय उनके चरित्रोंमें जो स्तोत्र और मन्त्र आये हैं, उन्हींका उपयोग करना चाहिये। अठारह भुजाओंवाली महिषासुर- मर्दिनी महालक्ष्मी ही विशेषरूपसे पूजनीय हैं; क्योंकि वे ही महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती कहलाती हैं। वे ही पुण्य-पापोंकी अधीश्वरी तथा सम्पूर्ण लोकोंकी महेश्वरी हैं ॥ २४-२५ ॥ जिसने महिषासुरका अन्त करनेवाली महालक्ष्मीकी भक्तिपूर्वक आराधना की है, वही संसारका स्वामी है। अतः जगत्को धारण करनेवाली भक्तवत्सला भगवती चण्डिकाकी अवश्य पूजा करनी चाहिये ॥ २६ ॥अर्घ्य आदिसे, आभूषणोंसे, गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे युक्त नैवेद्योंसे, रक्तसिंचित बलिसे, मांससे तथा मदिरा से भी देवीका पूजन होता है।* (राजन् ! बलि और मांस आदिसे की जानेवाली पूजा ब्राह्मणोंको छोड़कर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरासे कहीं भी पूजाका विधान नहीं है।) प्रणाम, आचमनके योग्य जल, सुगन्धित चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियोंको भक्तिभावसे निवेदन करके देवीको पूजा करनी चाहिये। देवीके सामने बायें भागमें कटे मस्तकवाले महादैत्य महिषासुरका पूजन करना चाहिये, जिसने भगवतीके साथ सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवीके सामने दक्षिण भागमें उनके वाहन सिंहका पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्मका प्रतीक एवं षड्विध ऐश्वर्यसे युक्त है। उसीने इस चराचर जगत्को धारण कर रखा है। तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित्त हो देवीकी स्तुति करे। फिरहाथ जोड़कर तीनों पूर्वोक्त चरित्रोंद्वारा भगवतीका स्तवन करे। यदिकोई एक ही चरित्रसे स्तुति करना चाहे तो केवल मध्यम चरित्रके पाठसे कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर चरित्रोंमेंसे एकका पाठ न करे। आधे चरित्रका भी पाठ करना मना है। जो आधे चरित्रका पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्तिके बाद साधक प्रदक्षिणा और जो लोग मांस और मदिराका व्यवहार करते हैं, उन्हीं लोगोंके लिये मांस-मदिराद्वारा पूजनका विधान है। शेष लोगोंको मांस-मदिरा आदिके द्वारा पूजा नहीं करनी चाहिये।
ततः कृतञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत् चरित्रैरिमयः।
एकेन वा मध्येन नैकेनेत्रयोरिह ॥ ३२ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
चरितार्धं तु न जपेज्जपञ्चिद्रमवाप्नुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारं कृत्वा मूर्च्छिन कृतांजलिः ॥ ३३ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
क्षमापयेज्जगधात्रिं मुहुर्मुहुरतंद्रितः।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिशा ॥ ३४ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हविः।
भूयो नामपदैर्देवत् पूज्येत्सुसमाहितः ॥ ३५ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
प्रयतः प्रांजलिः प्राह्वः प्रणम्यरोप्य चात्मनि।
सुचिरं भावयेदिषां चण्डिकां तन्मयो भवेत् ॥ ३६ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
एवं यः पूज्येद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम् ।
भुक्त्वा भोगान यथाकामं देवीसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ३७ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
यो न पूज्यते नित्यं चंडिकां भक्तवत्सलम्।
भस्मीकृत्यस्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी ॥ ३८ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
तस्मात्पूजाय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्।
यथोक्तेन विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि ॥ ३९ ॥ श्री दुर्गा सप्तशती
इति वैकृतिकं रहस्यं संपूर्णम्।
नमस्कार और फिर भी जगदम्बाके उद्देश्य से मस्तकपर हाथ जोड़े और अपने बारम्बार अपराध या अपराध के लिए क्षमा-प्रार्थना करे। सप्तशतीका प्रत्येक श्लोक मंत्ररूप है, उसमें तिल और घृत मिली हुई खेडकी आहुति दे॥ 27-34॥ या सप्तशती में जो स्तोत्र आए हैं, उन्नीसके मंत्रों से चंडिकाके के लिए पवित्र हविष्याका निवास करें। होमके प्रतिमा एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मीदेवीके नाम मंत्रों का उच्चारण करते हुए पुनः उनकी पूजा करें ॥ 35 ॥ रेखा मन और इंद्रियों को वश में किए हुए हाथ में हाथ जोड़कर अखंड भाव से देवी को प्रणाम करे और अंतःकरण स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चंडिकादेविका को देरतक चिंतन करे। चिंतन करते-करते नीनीमें तन्मय हो जाय ॥ 36 ॥ इस प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्ति को कम करके भगवानिका की पूजा करता है, वह मनोवांछित भोगोंको भोगकर अंतमें देवीका सायुज्य प्राप्त करता है॥ 37॥जो भक्तवत्सला चंडिका का प्रतिदिन पूजन नहीं करता, भगवती भगवान उसके पुण्यों को भस्म कर देते हैं॥ 38॥ इसलिए राजन ! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चंडिकाका शास्त्रोक्त विधि से पूजन करो। उसका सुरक्षा सुख मिलेगा* ॥ 39 ॥
५- मूर्तिरहस्यम् … श्री दुर्गा सप्तशती
मूर्ति रहस्य
ऋषिरुवाच
ॐ नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशी कुर्याज्जगत्रम् ॥1 ॥
कन कोत्तम कान्तिः सा सुकान्ति कन काम्बरा ।
देवी कनक वर्णाभा कन कोत्तम भूषणा ।।2||
कमलां कुश पाशाब्जैरलंकृत चतुर्भुजा ।
इन्दिरा कमला लक्ष्मी सा श्री रुकमाम्बुजासना ॥3 ॥
या रक्तदन्तिका नाम देवी प्रोक्ता मयानघ ।
तस्याः स्वरूपम् वक्ष्याभि शृणु सर्वभया पहम् ॥4 ।।
रक्तायुधा रक्तनेत्रा रक्त केशाति भीषणा ।।5 ॥
रक्त तीक्ष्ण नखा रक्त दशना रक्त दन्तिका।
पतिं नारी वानु रक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम् ॥6 ।।
नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली हैं, उनकी यदि भक्ति पूर्वक स्तुति और पूजा की जाये तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती है ॥1 ॥ उनके श्री अंगों की कान्ति कनक के समान उत्तम है। वे सुनहरे रंग के सुन्दर वस्त्र धारण करती है। उनकी आभा सोने के समान है तथा वे सोने के ही उत्तम आभूषण धारण करती है ।॥2॥ उनकी चार भुजाएँ कमल, अंकुश, पाश और शंख से सुशोभित हैं। वे इन्दिरा, कमला, लक्ष्मी, श्री तथा रुक्माम्बुजासना (स्वर्णमयी कमल के आसन पर विराजमान) आदि नामों से पुकारी जाती हैं ।॥3 ॥ (ऋषि कहते हैं) पहले मैंने रक्तदन्तिका नाम से जिस देवी का परिचय दिया अब उनके स्वरुप का वर्णन करूँगा, सुनो-वह सब प्रकार के भयों की दूर करने वाली है ॥4॥ वे लाल रंग के वस्त्र धारण करती हैं उनके शरीर का रंग भी लाल है और उनके समस्त अंगों के आभूषण भी लाल रंग के हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र. नेत्र, सिर के बाल, तीखे नख और दाँत लाल रंग के हैं इसीलिए वे रक्त दन्तिका कहलाती हैं और अत्यन्त भयानक कहलाती है जैसे स्त्री पति के प्रति अनुराग रखती है उसी प्रकार देवी अपने भक्त पर (माता की तरह) स्नेह रखते हुए उसकी सेवा करती है ||5-6 ||
वसुधेव विशाला सा सुमेरु युगल स्तनी ।
दीर्घो लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ ।17 ।।
कर्कशावतिकान्तौ तौ सर्वानन्दपयोनिधी ।
भक्तान सम्पाययेदेवी सर्वकाम दुधौ स्तनौ ।॥8 ॥
खड्गं पात्रं च मुसलं लाङ्गलं च विभर्ति सा ।
आख्याता रक्त चामुण्डा देवी योगेश्वरिति च ।19 ।।
अनया व्याप्तमखिलं जगत्स्थावरजंगमम् ।
इमां यः पूजयेद्भक्त्या स व्याप्नोति चराचरम् ॥10 ।।
देवी रक्त दन्तिका का आकार वसुधा (पृथ्वी) की भाँति विशाल है उनके दोनों स्तन सुमेरु पर्वत के समान हैं। वे लंबे, चौड़े, अत्यन्त स्थूल एवम् बहुत मनोहर हैं। कठोर होते हुए भी अत्यन्त कमनीय है तथा पूर्ण आनन्द के समुद्र हैं। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले ये दोनों स्तन देवी अपने भक्तों को पिलाती हैं ॥7-8 ॥ वे अपनी चार भुजाओं में खड्ङ्ग, पान-पात्र, मुसल और हल धारण करती हैं। ये ही रक्त चामुण्डा और योगेश्वरी देवी कहलाती हैं ॥9॥ इनके द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है। जो इन रक्त दन्तिका देवी का भक्तिपूर्वक भजन करता है वह भी चराचर जगत में व्याप्त होता है।
अधीते य इमं नित्यं रक्त दन्तया वपुः स्तवम् ।
तं सा परिचरेदेवी पतिं प्रिय मिवाङ्गना ॥ 11 ||
शाकम्भरी नील वर्णा नीलोत्पल विलोचना।
गम्भीरनाभि स्त्रिवली विभूषित तनूदरी ।।12 ।।
जो प्रतिदिन रक्त दन्तिका देवी के शरीर का स्तवन करता है उनकी वे देवी प्रेम पूर्वक संरक्षण रुप सेवा करती है, ठीक उसी तरह जैसे पतिव्रता नारी अपने पति की परिचर्या (सेवा) करती है ॥ 11 ॥ शाकम्भरी देवी के शरीर की कान्ति नीले रंग की है। उनके नेत्र नील कमल के समान है, नाभि गहरी है तथा त्रिवली से विभूषित उदर (मध्य भाग) सूक्ष्म है ॥12॥
सुकर्कश समोत्तुङ्गवृत्त पीनधन स्तनी ।
मुष्टिं शिलीमुखापूर्ण कमलं कमलालया ॥13॥
पुष्प पल्लव मूलादि फलाढ्यं शाक संचयम्।
काम्यानन्तर सैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्यु भयापहम् ॥14 ॥
कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति विश्वती परमेश्वरी।
शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता ॥15॥
विशोका दुष्ट दमनी शमनी दुरिता पदाम् ।
उमा गौरी सती चण्डी कालिका सा च पार्वती ॥16 ।।
उनके दोनों स्तन अत्यन्त कठोर, सब ओर से बराबर, ऊँचे, गोल, स्थूल तथा परस्पर सटे हुए हैं। वे परमेश्वरी कमल में निवास करने वाली हैं और हाथों में वाणों से भरी मुष्टि, कमल, शाक-समूह तथा प्रकाशमान धनुष धारण करती है। वह शाक समूह अनन्त मनोवांछित रसों से युक्त तथा क्षुधा, तृषा और मृत्यु के भय का नष्ट करने वाला तथा फूल, पल्लव, मूल आदि एवम् फलों से सम्पन्न हैं। वे ही शाकम्भरी, शताक्षी, दुर्गा कही गयी हैं।॥13-15 ॥ वे शोक से रहित, दुष्टों का दमन करने वाली तथा पाप और विपत्ति को शान्त करने वाली हैं। उमा, गौरी, सती, चण्डी,103कालिका और पार्वती भी वे ही हैं ॥16॥
शाकम्भरी स्तुवन् ध्यायञ्जपन् सम्पूजयन्नमन् ।
अक्षय्यमश्नुते शीघ्रमन्नपानामृतं फलम् ॥17 ।।
भीमापि नीलवर्णा सा दंष्ट्रा दशनभासुरा।
विशाल लोचना नारी वृत्तपीन पयोधरा ॥18 ||
चन्द्रहासं च डमरुं शिरः पात्रं च विभ्रती ।
एकवीरा काल रात्रिः सैवोक्ता कामदा स्तुता ॥19 ।।
तेजोमण्डल दुर्धर्षा भ्रामरी चित्रकान्ति भृत्।
चित्रानुलेपना देवी चित्रा भरण भूषिता ।।20 ।।
चित्र भ्रमर पाणिः सा महामारीति गीयते ।
इत्येता मूर्तयो देव्या याः ख्याता वसुधाधिप ।।21 ॥
-जो मनुष्य शाकम्भरी देवी की स्तुति, ध्यान, जप, पूजा और वन्दना करता है। वह शीघ्र ही अन्न, पान, एवम् अमृत रुप अक्षय फल का भागी होता है ॥17॥ भीमा देवी का वर्ण भी नील ही है। उनकी दाढ़ें और दाँत चमकते रहते हैं। उनके नेत्र बड़े-बड़े हैं। स्वरुप स्त्री का है। स्तन गोल-गोल और स्थूल हैं। वे अपने हाथों में चन्द्रहास नामक खड्ङ्ग, डमरु, मस्तक और पान पात्र धारण करती है। वे ही एकबीरा, कालरात्रि तथा कामदा कहलाती हैं और इन नामों से प्रशंसित होती हैं ॥18-19 ||भ्रामरी देवी की कान्ति विचित्र (अनेक रंग की है। वे अपने तेजोमण्डल के कारण दुर्धर्ष दिखायी देती हैं। उनका अंगराग भी अनेक रंग का है तथा वे चित्र-विचित्र आभूषणों से विभूषित हैं ॥20 ||भ्रमरपाणि और महामारी आदि नामों से उनकी महिमा का गान किया जाता है। इस प्रकार जगन्माता चण्डिका देवी की ये मूर्तियाँ बतलायी गयी हैं ।॥21॥
जगन्मातुश्चण्डिकायाः कीर्तिताः कामधेनवः ।
इदं रहस्यं परमं न वाच्यं कस्यचित्वया ॥22 ।।
व्याख्यानं दिव्यमूर्तीनाम् अभीष्ट फलदायकम्।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन देवीं जप निरन्तरम् ॥23 ||
सप्त जनमार्जितै घौरै ब्रह्म हत्या समैरपि।
पाठ मात्रेण मन्त्राणां मुच्यते सर्व किल्विषैः ॥24 ।।
जो कीर्तन करने पर कामधेनु के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करती हैं। यह परम गोपनीय रहस्य है। इसे किसी दूसरे को नहीं बतलाना चाहिये ।।22। दिव्य मूर्तियों का यह आख्यान मनोवांछित फल देने वाला है। इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके निरन्तर देवी के जप में लगे रहो ॥23॥ सप्तशती के मंत्रों के पाठ मात्र से मनुष्य सात जन्मों में उपार्जित ब्रह्म हत्या समान घोर पातकों एवम् कल्मषों से मुक्त हो जाता है 1124 ||
सर्वरुपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत् ।
अतोऽहं विश्व रुपां तां नमामि परमेश्वरीम् ॥
अर्थात् देवी सर्वरुपमयी है तथा सम्पूर्ण जगत् देवीमय है अतः मैं उन विश्वरुपा परमेश्वरी को नमस्कार करता हूँ।
6-क्षमा-प्रार्थना…
{क्षमा प्रार्थना} श्री दुर्गा सप्तशती
अपराध सहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥1 ॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ।।2 ।।
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।
यत्यपूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे ॥3 ॥
अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
या गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥4॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्त स्त्वां जगदम्बिके ।
इदानी मनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु || 5 ||
अज्ञानाद्विस्मृते र्भान्त्या यत्र्यूनमधिकम् कृतम ।
तत्सर्वं क्षम्यताम् देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥ 6 ॥
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्द विग्ग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि |। 7 ।।
गुह्याति गुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणा स्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धि र्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादा त्सुरेश्वरि ॥ 8 ॥
श्री दुर्गार्पणमस्तु श्री दुर्गा सप्तशती
7- श्रीदुर्गामानस-पूजा…श्री दुर्गा सप्तशती
श्रीदुर्गामानस-पूजा
षोडषोपचार विधि (मानस-पूजा)॥
उदयच्छन्दन कुंकुमारुण पयोधारा भ्राप्लावितां।
नानानार्ध्य मणि प्रवालघटिता साधनं गृहाण अम्बिके।
अमृता सुरसुंदरी भिरभितो हस्ताम्बुजैर्भक्तितो।
मातः सुन्दरी भक्त कल्प लतिके श्री पादुकामादरात्।।
-माता त्रिपुर सुन्दरी। तुम भक्तों की इच्छा पूरी करने वाली कल्पना हो। माँ। यह पादुका (खड़ाऊं या फिर वेश-भूषा में जाने वाला अन्य) आदर डेकफ़े श्री स्टाइक में टिक जाता है, इसे ग्रहण करो। यह उत्तम चंदन और कुंकममिश्रित लाल जल की धारा से धोयी गयी है। अनेक प्रकार की बहुमूल्य मणियों औरमूँगों से इसका निर्माण हुआ है और अनेकों देवांगनाओं ने अपने हाथों से भक्तिपूर्वकधो-पोंछकर स्वच्छ बना दिया है।
देवेन्द्रादि भिर्र्चित्तं सुरगणैरादाय सिंहासनं
चंचत्कंचन संग्रहाभिर्जितं चारुप्रभा भास्वरम्।
एतचम्पक केतकी परिमलं तैलं महा निर्मलम्गं
धो द्वार्तन मादरेण युवानि दत्तं ग्रहणाम्बिके ॥
-हे जगदम्बा (देवी) । देवताओं ने तुम्हारे बैठने के लिए यह दिव्य सिंहासन लाकर रखा है, इस पर विराजो। इस सिंहासन की देवराज इन्द्र आदि भी पूजा करते हैं। दमकते हुए स्वर्ण (सोने) से इसका निर्माण किया गया है। यह अपनी मनोहर प्रभा से सदैव प्रकाशमान रहता है। इसके अलावा चम्पा और केतकी की सुगन्ध से परिपूर्ण अत्यन्त निर्मल तेल है जिसे दिव्य युवतियां आदरपूर्वक तुम्हारी सेवा में प्रस्तुत कर रही है। कृपा करके इसे स्वीकार करो।
पश्चादेवी गृहाण शुम्भ गृहिणि श्री सुंदरि प्रियशो
गंध द्रव्य समूह स्थिर तरं धात्रीफलं निर्मलम्।
तत्केशान परिशोध्य कंकति कया मंदाकिनी स्त्रोतसि।
‘स्नात्व प्रोज्वलगंधकं भवतु हे श्री सुंदरि त्वन्मुदे ॥
देवी! यह विशुद्ध आँवले का फल ग्रहण करो। शिवप्रिये ! त्रिपुर सुन्दरी । इस आँवले में सभी सुगन्धित पदार्थ डाले गये हैं जिससे यह परम सुगन्ध युक्त हो गया है अतः इसको लगाकर अपने केशों (बालों) को कंघी से संवार लो। गंगा जी की पवित्र धारा में स्नान करो। तत्पश्चात् यह दिव्य गन्ध आपकी सेवा में प्रस्तुत है। यह तुम्हारे आनन्द को बढ़ाने वाला है।
सुरधिपति कामिनी कर सरोजिला धृतां
सचचंदन सकुंकुमागुरु पूर्णेण विभ्राजिताम्।
महापरि मलोज्वलां सरस शुद्ध कस्तूरिकां
गृहाण वरदायिनी त्रिपुर सुन्दरी श्रीप्रदे ॥
अनुवाद-सम्पत्ति प्रदायक त्रिपुर सुन्दरी देवी ! यह शुद्ध कस्तूरी ग्रहण करो। इसे आपकी सेवा में देवराज इन्द्र की पत्नी शची लेकर खड़ी है। इसमें चन्दन, कुंकम, अगुर के मिश्रण से इसकी सुगन्ध और भी बढ़ गयी है।
गंधर्वमर किन्नर प्रियतमा संत हस्ताम्बुज–
प्रस्तारे रधिया मन मुत्तमात्रं काश्मीर जापिंजरम्मा
तर्भाव स्वर भानुमंडल लस्तकान्ति प्रदानोज्वलं
चैतन्निमल मतनोतु वसनं श्री सुन्दरी त्वन्मुदम् ॥
अनुवाद-माता श्री सुन्दरी ! यह सुन्दर निर्मल वस्त्र तुम्हारी सेवा में समर्पित कर रहा हूँ। इसे स्वीकार करो। यह तुम्हारे आनन्द को बढ़ाये। इसे गन्धर्व, देवता तथा किन्नरों की प्रेयसियां अपने कर कमलों में लिये हुए खड़ी हैं। यह केसर (अति सुगन्धित पदार्थ) में रंगा हुआ पीताम्बर है। इसमें से सूर्य मण्डल के समान दिव्य प्रकाश निकल रहा है जिस कारण इसकी शोभा और अधिक बढ़ रही है।
स्वर्णा कल्पित कुंडले श्रुति युगे हस्ताम्बुजे मुद्रिका।
मध्ये सार सना नितम्ब फलके मंजीर मंघृद्वये।
हरो वक्षसि कंकणौ क्वांरकारौ कर द्वन्द्वके
विन्यासं मुकुटं शिरस्य नुदिनं दत्तोन्नमंदस्तुयताम्।।
तुम्हारे दोनों कानों में सोने के बने हुए कुण्डल झिलमिलाते रहें, कर-कमल की एक अंगुलि में अंगूठी शोभायान हो, कटिभाग (कमर) में नितम्बों पर करधनी सुशोभित हो, चरणों में मंजीर और वक्ष स्थल पर हार सुशोभित हो तथा कलाइयों में कंगन खनकते रहें। तुम्हारे मस्तक पर दिव्य मुकुट आनन्द प्रदान करे। ये आभूषण प्रशंसा के योग्य हैं।
ग्रीवायां धृत कान्ति कान्त पटलं ग्रैवेयकं सुन्दरं
सिन्दूरं विल्सललाट फलके सौन्दर्य मुद्रा धरम्।
राजत्कज्जल मुज्वलोत्पलदल श्री मोचने लोचने
तद्दिवौषधि निर्मितं रचयतु श्री शांभवी श्री प्रदे ॥
-धन प्रदान करने वाली शिव प्रिया! तुम कण्ठ में अत्यन्त चमकीली सुन्दर हँसली धारण करो, ललाट के मध्य भाग में सिन्दूर लगाओ तथा अत्यन्त सुन्दर पद्म पत्र की शोभा को भी तिरस्कृत करने वाले सुन्दर नेत्रों में काजल लगा लो। यह काजल दिव्य औषधियों से तैयार किया गया है।
अमन्दतर मन्दोन्मथित दुग्ध सिन्धुद्भवं
निशाकर करोपमं त्रिपुर सुन्दरी श्री प्रदे।
गृहाण् मुख मिक्षितं मुकुर बिम्ब मा विद्रुमै-
विनिर्मित गढ़चिदे रति करम्बुज स्थायिनम्।।
-पापों का विनाश करने वाली, सम्पत्ति प्रदान करने वाली देवी त्रिपुर सुन्दरी ! अपने मुख की शोभा निहारने के लिए यह दर्पण स्वीकार करो। इसे साक्षात् रति (कामदेव की पत्नी) अपने हाथों में लेकर तुम्हारी सेवा में उपस्थित है। इस दर्पण के चारों ओर मूंगे जड़े हैं। प्रचण्ड वेग से घूमने वाले मन्दराचल पर्वत की मथानी से जब क्षीर सागर मथा गया, उस समय यह दर्पण उसी से प्रकट हुआ। यह चन्द्रमा की किरणों के समान अत्यन्त उज्वल है।
कस्तूरी द्रव्य चंदना गुरु सुधा धारा भ्राप्लावितं
चंचचम्प कपाटलादि सुरभि द्रव्यैः सुगंधि कृतम्।
देवस्त्री गम मस्तक स्थित बख्तनादि कुम्भ ब्रजै-
रम्भः शम्भवी सं द्रवेण विमलं दलं गृहानाम्बिके ॥
भगवती पार्वती देवी। देवांगनाओं के मस्तक पर रखे हुए रत्नमय कलशों द्वारा दिया जाने वाला यह निर्मल जल ग्रहण करो। इसे चम्पा और गुलाल आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित किया गया है तथा कस्तूरी रस, चन्दन, अगरु और सुधा की धारा से आप्लावित है।
कलारोत्पल नाग केसर सरोजख्यावली मालती-
मल्ली कैख केतकादि कुसुमै रक्ता श्वमारिदिभिः ।
पुष्पैर्माल्य भरेण वै सुरभिणा नाना रस स्त्रोतसा ।
ताम्राम्भोज निवासिनीं भगवती श्री चण्डिका पूजये ।।
-कल्हार, उत्पल, नागकेसर, कमल, मालती, मल्लिका, कुमुद, केतकी और लाल कनेर आदि फूलों से सुगन्धित पुष्प लताओं से तथा विविध प्रकार के रसों की धारा से में कमल के अन्दर निवास करने वाली श्री चण्डिका देवी की पूजा करता हूँ।
मांसी गुग्गुल चन्दन नागुरुरजः कर्पूर शैलेयजै-
र्माध्वीकैः सह कुंकुमैः सुरचितैः सर्पिर्भिरा मिश्रितैः ।
सौरभ्य स्थिति मन्दिरे मणिमये पात्रे भवत्प्रीतये प्रीतये
धुपोऽयं सुरकामिनी विरिचतः श्री चण्डिके त्वन्मुदे ॥
-देवताओं की स्त्रियों द्वारा तैयार किया हुआ यह दिव्य धूप तुम्हारी प्रसन्नता को बढ़ाने वाला हो। यह धूप रत्नमय पात्र में रखा हुआ है। यह तुम्हें सन्तोष प्रदान करे। इसे जटामासी, गुग्गुल, चन्दन, अगरुचूर्ण, कपूर, शिलाजीत, मधु, कुमकुम तथा घी का मिश्रण करके उत्तम विधि से निर्मित किया गया है।
घृतद्रव परिस्फुर द्रुचिररत्न यष्ट यान्वितो
महातिमिर नाशनः सुर निताम्बिनी निर्मितः
सुवर्ण चषक स्थितः सघन सार वर्त्यान्वित-
स्तव त्रिपुर सुन्दरि स्फुरति देवि दीपोमुदे ॥
देवी त्रिपुर सुन्दरी ! तुम्हारी प्रसन्नता के लिए यह दीप प्रकाशित- हो रहा है। यह घी से प्रज्जवलित है। उसके दीवट में सुन्दर रत्न की डंडी लगी है, इसे देवांगनाओं ने बनाया है। यह दीपक स्वर्ण (सोने) के पात्र में जलाया गया है। इसमें कपूर के साथ बत्ती रखी है। यह महान अन्धकार को नष्ट करने वाला है।
॥ जाती सौरभ निर्भरं रुचिकरं शाल्योदनं निर्मलं
युक्तं हिगुंमरीच जीरसुरभि द्रव्यान्वितैर्व्यजनैः
पक्वान्नेन सपायसेन मधुना दध्याज्य सम्मिश्रितं
नैवेद्यं सुर कामिनी विरचितं श्री चण्डिके त्वन्मुदे ॥
-देवी चण्डिका ! देव वधुओं से तुम्हारी प्रसन्नता के लिए यह दिव्य नैवेद्य तैयार किया है। इसमें अंगहनी चावल का स्वच्छ भात है जो अत्यन्त रुचिकर और चमेली की सुगन्ध से सुवासित है साथ ही हींग, मिर्च और जीरा आदि केसुगन्धित द्रव्यों से तड़का लगाकर विविध प्रकार से बनाये गये हैं। नैवेद्य में भाँति-भाँति पकवान, खीर, मधु, दही और घी भी है।
लवंग कलिकोज्वलं बहुत नागवल्ली दलं
सजाति फल कोमलं सघन सार पूंगी फलम्।
सुधा मधुरिमा कुलम् रुचिर रत्न पात्र स्थितं
गृहाण मुख पंकजे स्फुरितमम्ब ताम्बूलकम् ॥
माते ! इस सुन्दर रत्नमय पात्र में सजाकर रखा हुआ यह दिव्य ताम्बूल (पान) मुख में ग्रहण करो। लवंग की कली चुभोकर इसके बीड़े बनाये गये हैं अतः बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं। इसमें स्वच्छ पान के पत्तों का उपयोग किया गया है। इन सभी बीड़ों में कोमल जावित्री और सुपारी आदि डाले गये है। यह ताम्बूल सुधा के माधुर्य से परिपूर्ण है।
शरत्प्रभव चन्द्रमा स्फुरित चन्द्रिका सुन्दरं
गलत्सुरतरंगिणी ललित मौक्तिकाडम्बरम्।
गृहाण नवकांचन प्रभव दण्ड खण्डोज्वलं ।
महा त्रिपुर सुन्दरि ! प्रकट मातपत्रं महत् ॥
महा त्रिपुर सुन्दरी माता पार्वती! तुम्हारे सम्मुख यह दिव्य छत्र है। इसे ग्रहण करो। यह शरत् काल के चन्द्रमा के चाँदनी की भाँति अत्यन्त चमकीला और सुन्दर है। इसमें लगी सुन्दर मोतियों की झालर ऐसे प्रतीत हो रही हैं जैसे देव नदी गंगा के स्वच्छ जल की धारा ऊपर से नीचे गिर रही हो। यह छत्र स्वर्णमयी दण्ड से और अधिक शोभायमान हो रहा है।
मात स्त्वन्मु दमातनोतु सुभग स्त्रीभिः सदाऽन्दोलितं
शुभ्रं चामर मिन्दु कुन्द सदृशं प्रस्वेद दुःखापहम्।
सद्योऽग स्त्यवसिष्ठ नारद शुक व्यासादि वाल्मीकिभिः
स्वे चित्ते क्रियमाण एव कुरुतां शर्माणि वेद ध्वनिः ॥
-माते! सुन्दर स्त्रियों के हाथों से निरन्तर डुलाया जाने वाला यह श्वेत चंवर, जो चन्द्रमा और कुन्द के समान उज्वल तथा पसीने के कष्ट को दूर करने वाला है, तुम्हें आनन्द प्रदान करे। इसके सिवा महर्षि अगस्त्य, वशिष्ठ, नारद, शुक, व्यास, वाल्मीकि आदि मुनि अपने-अपने मन में जो वेद मंत्रों का उच्चारण करते हैं उनकी मन संकल्पित वेद ध्वनि तुम्हारे आनन्द को बढ़ायें।
स्वर्णाङ्गणे वेणुमृदंग शंख भेरीनिनादै रुपगीयमाना ।
कोलाहलै राकलिता तवास्तु विद्याधरी नृत्यकला सुखाय ॥
स्वर्ग के आँगन में वेणु, मृदंग, शंख तथा भेरी की ध्वनि केसाथ जो संगीत होता है, जिसमें अनेक प्रकार के कोलाहल का शब्द व्याप्त रहता है, वह विद्याधरी द्वारा प्रदर्शित नृत्य कला तुम्हारे सुख की वृद्धि करे।
देवि भक्तिर सभावित वृत्ते प्रीयतां यदि कुतोऽपिलभ्यते ।
तत्र लौल्यमपि सत्फलमेकं जन्म कोटिभिर पीह न लभ्यत् ।।
देवी ! तुम्हारे भक्ति रस से परिपूर्ण तुम्हारे पद्ममय स्तोत्र में यदि कहीं भी कुछ भक्ति का अंश प्राप्त हो तो उसी से प्रसन्न हो जाओ। तुम्हारी भक्ति के लिए मन में जो आकुलता होती है, वही एकमात्र जीवन का फल है, वह करोड़ों जन्म धारण करने पर भी इस संसार में तुम्हारी कृपा के बिना सुलभ नहीं हो सकती।उपरोक्त कल्पित सोलह उपचारों से जो प्राणी भगवती जगदम्बा की मानस पूजा और स्तवन करता है। उस पर भगवती की अपार कृपा होती है। देवी त्रिपुर सुन्दरी उससे प्रसन्न होकर उसकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं।
नोट-जिन भगवती भक्तों को मैया के चरणों से स्नेह है किन्तु ‘संस्कृत’ का ज्ञान नहीं है, उनके लिए हिन्दी अनुवाद है। वे भक्त हिन्दी भाषा में पूजा-अर्चना, पाठ एवम् अपनी श्रद्धा अर्पित करें। भक्ति में भाषा नहीं, बल्कि श्रद्धा की आवश्यकता होती है।
8-अथ दुर्गाद्वात्रिंशन्नममाला …
[ दुर्गाद्वात्रिंशन्नममाला ] श्री दुर्गा सप्तशती
एक समय की बात है, ब्रह्मा आदि देवताओं ने पुष्प आदि विविध उपचारों से महेश्वरी दुर्गा का पूजन किया। इससे प्रसन्न होकर दुर्गतिनाशिनी दुर्गा ने कहा- ‘देवताओ! मैं तुम्हारे पूजन से संतुष्ट हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो, माँगो, मैं तुम्हें दुर्लभ-से-दुर्लभ वस्तु भी प्रदान करूँगी।’ दुर्गा का यह वचन सुनकर देवता बोले- ‘देवि! हमारे शत्रु महिषासुर को, जो तीनों लोकों के लिये कंटक था, आपने मार डाला, इससे सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ एवं निर्भय हो गया। आपकी ही कृपा से हमें पुनः अपने-अपने पद की प्राप्ति हुई है। आप भक्तों के लिये कल्पवृक्ष हैं, हम आपकी शरण में आये हैं। अतः अब हमारे मन में कुछ भी पाने की अभिलाषा शेष नहीं है। हमें सब कुछ मिल गया; तथापि आपकी आज्ञा है, इसलिये हम जगत्की रक्षाके लिये आपसे कुछ पूछना चाहते हैं। महेश्वरि ! कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे शीघ्र प्रसन्न होकर आप संकट में पड़े हुए जीव की रक्षा करती हैं। देवेश्वरि! यह बात सर्वथा गोपनीय हो तो भी हमें अवश्य बतावें।’देवताओं के इस प्रकार प्रार्थना करने पर दयामयी दुर्गा देवी ने कहा- ‘देवगण! सुनो-यह रहस्य अत्यन्त गोपनीय और दुर्लभ है। मेरे बत्तीस नामों की माला सब प्रकार की आपत्ति का विनाश करने वाली है। तीनों लोकों में इसके समान दूसरी कोई स्तुति नहीं है। यह रहस्य रूप है। इसे बतलाती हूँ, सुनो-
दुर्गा दुर्गार्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी। दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ॥
दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा । दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला ॥
दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी । दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ॥
दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी। दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी ॥
दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी । दुर्गमाङ्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी ॥
दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी । नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः ॥
पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः ॥
१ दुर्गा, २ दुर्गार्तिशमनी, ३ दुर्गापद्विनिवारिणी, ४ दुर्गमच्छेदिनी, ५ दुर्गसाधिनी, ६ दुर्गनाशिनी, ७ दुर्गतोद्धारिणी, ८ दुर्गनिहन्त्री, ९ दुर्गमापहा, १० दुर्गमज्ञानदा, ११ दुर्गदैत्यलोकदवानला, १२ दुर्गमा, १३ दुर्गमालोका, १४ दुर्गमात्मस्वरूपिणी, १५ दुर्गमार्गप्रदा, १६ दुर्गमविद्या, १७ दुर्गमाश्रिता, १८ दुर्गमज्ञानसंस्थाना, १९ दुर्गमध्यानभासिनी, २० दुर्गमोहा, २१ दुर्गमगा, २२ दुर्गमार्थस्वरूपिणी, २३ दुर्गमासुरसंहन्त्री, २४ दुर्गमायुधधारिणी, २५ दुर्गमाङ्गी, २६ दुर्गमता, २७ दुर्गम्या,२८ दुर्गमेश्वरी, २९ दुर्गभीमा, ३० दुर्गभामा, ३१ दुर्गभा, ३२ दुर्गदारिणी ।
जो मनुष्य मुझ दुर्गाकी इस नाममालाका पाठ करता है, वह निःसन्देह सब प्रकारके भयसे मुक्त हो जायगा।”कोई शत्रुओंसे पीड़ित हो अथवा दुर्भेद्य बन्धनमें पड़ा हो, इन बत्तीस नामोंके पाठमात्रसे संकटसे छुटकारा पा जाता है। इसमें तनिक भी संदेहके लिये स्थान नहीं है। यदि राजा क्रोधमें भरकर वधके लिये अथवा और किसी कठोर दण्डके लिये आज्ञा दे दे या युद्धमें शत्रुओंद्वारा मनुष्य घिर जाय अथवा वनमें व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओंके चंगुलमें फँस जाय, तो इन बत्तीस नामोंका एक सौ आठ बार पाठमात्र करनेसे वह सम्पूर्ण भयोंसे मुक्त हो जाता है। विपत्तिके समय इसके समान भयनाशक उपाय दूसरा नहीं है। देवगण ! इस नाममालाका पाठ करनेवाले मनुष्योंकी कभी कोई हानि नहीं होती। अभक्त, नास्तिक और शठ मनुष्यको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो भारी विपत्तिमें पड़नेपर भी इस नामावलीका हजार, दस हजार अथवा लाख बार पाठ स्वयं करता या ब्राह्मणोंसे कराता है, वह सब प्रकारकी आपत्तियोंसे मुक्त हो जाता है। सिद्ध अग्निमें मधुमिश्रित सफेद तिलोंसे इन नामोंद्वारा लाख बार हवन करे तो मनुष्य सब विपत्तियोंसे छूट जाता है। इस नाममालाका पुरश्चरण तीस हजारका है। पुरश्चरणपूर्वक पाठ करनेसे मनुष्य इसके द्वारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध कर सकता है। मेरी सुन्दर मिट्टीकी अष्टभुजा मूर्ति बनावे, आठों भुजाओंमें क्रमशः गदा, खड्ङ्ग, त्रिशूल, बाण, धनुष, कमल, खेट (ढाल) और मुद्गर धारण करावे। मूर्तिके मस्तकमें चन्द्रमाका चिह्न हो, उसके तीन नेत्र हों, उसे लाल वस्त्र पहनाया गया हो, वह सिंहके कंधेपर सवार हो और शूलसे महिषासुरका वध कर रही हो, इस प्रकारकी प्रतिमा बनाकर नाना प्रकारकी सामग्रियोंसे भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करे। मेरे उक्त नामोंसे लाल कनेरके फूल चढ़ाते हुए सौ बार पूजा करे और मन्त्र जप करते हुए पूएसे हवन करे। भाँति- भौतिके उत्तम पदार्थ भोग लगावे। इस प्रकार करनेसे मनुष्य असाध्य कार्यको भी सिद्ध कर लेता है। जो मानव प्रतिदिन मेरा भजन करता है, वह कभी विपत्तिमें नहीं पड़ता।’देवताओंसे ऐसा कहकर जगदम्बा वहीं अन्तर्धान हो गयीं। दुर्गाजीके इस उपाख्यानको जो सुनते हैं, उनपर कोई विपत्ति नहीं आती।
9- अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् ..
देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् .श्री दुर्गा सप्तशती
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः । न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥ १॥
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् । तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ २॥
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाःपरं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः। मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ३॥
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया। तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥४॥
परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि। इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ ५ ॥
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः। तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥ ६ ॥
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः। कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्न न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे ॥ ७॥
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः । अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥
नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः । श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥९॥
आपत्सु मग्नःस्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि नैतच्छ्ठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥ १० ॥
जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्म मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न ही । एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥ १२॥
इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
माँ! मैं न मन्त्र जानता हूँ, न यन्त्र; अहो! मुझे स्तुतिका भी ज्ञान नहीं है। न आवाहनका पता है, न ध्यानका। स्तोत्र और कथाकी भी जानकारी नहीं है। न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप करना ही आता है; परंतु एक बात जानता हूँ, केवल तुम्हारा अनुसरण- तुम्हारे पीछे चलना। जो कि सब क्लेशोंको-समस्त दुःख-विपत्तियोंको हर लेनेवाला है ॥ १ ॥सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता ! मैं पूजाकी विधि नहीं जानता, मेरे पास धनका भी अभाव है, मैं स्वभावसे भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक- ठीक पूजाका सम्पादन हो भी नहीं सकता; इन सब कारणोंसे तुम्हारे चरणोंकी सेवामें जो त्रुटि हो गयी है, उसे क्षमा करना; क्योंकि कुपुत्रका होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥ २॥माँ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे सीधे-सादे पुत्र तो बहुत-से हैं, किंतु उन सबमेंमैं ही अत्यन्त चपल तुम्हारा बालक हूँ; मेरे-जैसा चंचल कोई विरला ही होगा।शिवे ! मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है; क्योंकिसंसारमें कुपुत्रका होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥ ३ ॥जगदम्ब! मातः ! मैंने तुम्हारे चरणोंकी सेवा कभी नहीं की, देवि! तुम्हेंअधिक धन भी समर्पित नहीं किया; तथापि मुझ जैसे अधमपर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो, इसका कारण यही है कि संसारमें कुपुत्र पैदा हो सकता है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥४॥ गणेशजीको जन्म देनेवाली माता पार्वती ! [अन्य देवताओंकी आराधना करते समय ] मुझे नाना प्रकारकी सेवाओंमें व्यग्र रहना पड़ता था, इसलिये पचासी वर्षसे अधिक अवस्था बीत जानेपर मैंने देवताओंको छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा-पूजा मुझसे नहीं हो पाती; अतएव उनसे कुछ भी सहायतामिलनेकी आशा नहीं है। इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैंअवलम्बरहित होकर किसकी शरणमें जाऊँगा ॥ ५ ॥ माता अपर्णा ! तुम्हारे मन्त्रका एक अक्षर भी कानमें पड़ जाय तो उसका फल यह होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाकके समान मधुर वाणीका उच्चारण करनेवाला उत्तम वक्ता हो जाता है, दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओंसे सम्पन्न हो चिरकालतक निर्भय विहार करता रहता है। जब मन्त्रके एक अक्षरके श्रवणका ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जपमें लगे रहते हैं, उनके जपसे प्राप्त होनेवाला उत्तम फल कैसा होगा? इसको कौन मनुष्य जान सकता है ॥ ६॥ भवानी ! जो अपने अंगोंमें चिताकी राख-भभूत लपेटे रहते हैं, जिनका विष ही भोजन है, जो दिगम्बरधारी (नग्न रहनेवाले) हैं, मस्तकपर जटा और कण्ठमें नागराज वासुकिको हारके रूपमें धारण करते हैं तथा जिनके हाथमें कपाल (भिक्षापात्र) शोभा पाता है, ऐसे भूतनाथ पशुपति भी जो एकमात्र ‘जगदीश’ की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारण है? यह महत्त्व उन्हें कैसे मिला; यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहणकी परिपाटीका फल है; तुम्हारे साथ विवाह होनेसे ही उनका महत्त्व बढ़ गया ॥ ७॥मुखमें चन्द्रमाकी शोभा धारण करनेवाली माँ! मुझे मोक्षकी इच्छा नहीं है, संसारके वैभवकी भी अभिलाषा नहीं है; न विज्ञानकी अपेक्षा है, न सुखकी आकांक्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म ‘मृडानी, रुद्राणी, शिव, शिव, भवानी’ – इन नामोंका जप करते हुए बीते ॥८॥माँ श्यामा ! नाना प्रकारकी पूजन-सामग्रियोंसे कभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी। सदा कठोर भावका चिन्तन करनेवाली मेरी वाणीने कौन-सा अपराध नहीं किया है! फिर भी तुम स्वयं ही प्रयत्न करके मुझ अनाथपर जो किंचित् कृपादृष्टि रखती हो, माँ! यह तुम्हारे ही योग्य है। तुम्हारी-जैसी दयामयी माता ही मेरे-जैसे कुपुत्रको भी आश्रय दे सकती है ॥ ९॥ माता दुर्गे! करुणासिन्धु महेश्वरी ! मैं विपत्तियोंमें फँसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ [पहले कभी नहीं करता रहा। इसे मेरी शठता न मान लेना; क्योंकि भूख-प्याससे पीड़ित बालक माताका ही स्मरण करते हैं ॥ १०॥जगदम्ब ! मुझपर जो तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है, इसमें आश्चर्यकी कौन- सी बात है, पुत्र अपराध-पर-अपराध क्यों न करता जाता हो, फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती ॥ ११ ॥महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े, वह करो ॥ १२॥
10- सिद्धकुंजिकास्तोत्रम् …
सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम् श्री दुर्गा सप्तशती
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम् ।
येन मंत्र प्रभावेण चण्डी जापः शुभोभवेत् ॥1 ॥
न कवचं नार्गला स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥2॥
कुंजिका पाठ मात्रेण दुर्गा पाठ फलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवनामपि दुर्लभम् ॥३ ॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति ।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।
पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम् ॥4॥
मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
ॐ ग्लौं हूं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।
शिव जी बोले-देवी! सुनो! मैं उत्तम कुंजिका स्तोत्र का उपदेश करूँगा, जिस मंत्र के प्रभाव से देवी का जप (पाठ) सफल होता है ॥1 ॥ कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी(आवश्यक) नहीं है 12 ||केवल कुंजिका के पाठ से दुर्गा-पाठ का फल प्राप्त हो जाता है। यह अत्यन्त गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ है ॥3 ॥हे पार्वती ! इसे स्वयोनि की भाँति प्रयत्न पूर्वक गुप्त रखना चाहिए। यह उत्तम कुंजिका स्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि (अभिचारिक) उद्देश्यों को सिद्ध करता है ॥4॥(मारण-काम क्रोध का नाश, मोहन-इष्ट देव मोहन, वशीकरण-मन का वशीकरण, स्तम्भन-इन्द्रियों की विषयों के प्रति उपरति, उच्चाटन-मोक्ष प्राप्ति के लिए छटपटाहट) मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हूं क्लीं जूं सःज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।
(मंत्र में आये बीजों का अर्थ जानना न तो सम्भव है, न आवश्यक और नवांछनीय। केवल जप्न ही पर्याप्त है:
11- सप्तशती के कुछ सिद्ध सम्पुट-मंत्र …
[ सप्तशती के कुछ सिद्ध सम्पुट-मंत्र ] श्री दुर्गा सप्तशती
श्रीमार्कण्डेयपुराणान्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘श्लोक’, ‘अर्धश्लोक’ और ‘उवाच’ आदि मिलाकर ७०० ( 700) मन्त्र हैं। यह माहात्म्य दुर्गासप्तशतीके नामसे प्रसिद्ध है। सप्तशती अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थों को प्रदान करनेवाली है। जो पुरुष जिस भाव और जिस कामना से श्रद्धा एवं विधि के साथ सप्तशती का पारायण करता है, उसे उसी भावना और कामना के अनुसार निश्चय ही फल-सिद्धि होती है। इस बात का अनुभव अगणित पुरुषों को प्रत्यक्ष हो चुका है। यहाँ हम कुछ ऐसे चुने हुए मन्त्रों का उल्लेख करते हैं, जिनका सम्पुट देकर विधिवत् पारायण करने से विभिन्न पुरुषार्थों की व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से सिद्धि होती है। इनमें अधिकांश सप्तशती के ही मन्त्र हैं और कुछ बाहर के भी हैं-
नमस्ते रुद्ररुपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनी ।नमः कैटभ हारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनी ॥1 ॥
नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै च निशुम्भासुर घातिनी ॥2 |
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व में। ऐंकारी सृष्टि रुपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ॥३ ॥
क्लींकारी काम रुपिण्यै बीजरुपे नमोऽस्तु ते। चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ॥4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्र रुपिणी ॥5॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं तूं वागधश्वरी। क्रां क्रीं क्रू कालिका देवि शां शीं शृं में शुभं कुरु ॥6 ।।
हुं हुं हुंकार रुपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी । भ्रां भ्रीं भ्रू भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ।।7 ॥
अं कं चं टं तं पं यं सं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ॥8 ॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्र सिद्धिं कुरुष्व में ॥ इदं तु कुंजिका स्तोत्रम मंत्र जागर्ति हेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ।।
यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् ।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।।
( इति श्री रुद्रयामले गौरी तन्त्रे शिव पार्वति संवादे)कुंजिका स्तोत्रम् सम्पूर्णम् )
हे रुद्र रुपिणी! तुम्हें नमस्कार है। हे मधु दैत्य को मारने वाली ! तुम्हें नमस्कार है। हे कैटभ हारिणी! तुम्हें नमस्कार है! हे महिषासुर मर्दिनी ! तुम्हें नमस्कार है ॥1 ॥ शुम्भ का हनन करने वाली और निशुम्भ को मारने वाली ! तुम्हें नमस्कार है ॥2॥ हे महादेवी! मेरे जप को जाग्रत और सिद्ध करो। ‘ऐंकार’ के रुप में सृष्टि स्वरुपिणी, ‘हीं’ के रुप में सृष्टि का पालन करने वाली ॥3 ॥ ‘क्लीं’ के रुप में काम रुपिणी तथा बीज रुपिणी देवी! तुम्हें नमस्कार है। चामुण्डा के रुप में चण्ड विनाशिनी और ‘बैंकार’ के रुप में तुम वर देने वाली हो ॥4॥ ‘विच्चे’ के रुप में तुम नित्य ही अभय देती हो (इस प्रकार ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) तुम इस मंत्र का स्वरुप हो ॥5 । ‘धां धीं हूं’ के रुप में धूर्जटी (शिव) की तुम पत्नी हो। ‘वां वीं चूं’ के रुप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। ‘क्रां क्रीं क्रू’ के रुप में कालिका देवी, ‘शां शीं शू’ के रुप में मेरा कल्याण करो ॥6॥ ‘ हुं हुं हुंकार’ स्वरुपिणी, ‘जं जं जं’ जम्भनाशिनी, ‘भ्रां श्रीं भ्रू’ के रुप में हे कल्याण कारिणी भैरवी भवानी। तुम्हें बार-बार प्रणाम ॥7॥’ अं के चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं’ इन सबको तोड़ो और दीप्त करो स्वाहा। ‘पां पीं पूं’ के रुप में तुम पार्वती पूर्णा हो, ‘खां खीं खूं’ के रुप में तुम खेचरी (आकाश चारिणी) हो ॥8 ॥ ‘सां सीं सूं’ स्वरुपिणी सप्तशती देवी के मंत्र मेरे लिए सिद्ध करो। यह कुंजिका स्तोत्र मंत्र को जगाने के लिए है। इसे भक्तहीन पुरुषों को नहीं देना चहिए। हे पार्वती ! इसे गुप्त रखो। हे देवी! जो बिना कुंजिका के सप्तशती पाठ करते हैं उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में रोना निरर्थक होता है।
श्री दुर्गा सप्तशती
(१) सामूहिक कल्याणके लिये-
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां |
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥
(२) विश्वके अशुभ तथा भयका विनाश करनेके लिये-
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनायनाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥
(३) विश्वकी रक्षाके लिये-
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥
(४) विश्वके अभ्युदयके लिये-
विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वंविश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्। विश्वेशवन्द्या भवती भवन्तिविश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥
(५) विश्वव्यापी विपत्तियोंके नाशके लिये-
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ॥
(६) विश्वके पाप-ताप-निवारणके लिये-
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते- नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः। पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ॥
(७) विपत्ति-नाशके लिये-
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
(८) विपत्तिनाश और शुभकी प्राप्तिके लिये-
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।
(९) भय-नाशके लिये-
(क) सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥
( ख) एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्। पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥
(ग) ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥
सिद्धसम्पुटमन्त्रा
(१०) पाप-नाशके लिये-
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्। सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव ।।
(११) रोग-नाशके लिये-
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥
(१२) महामारी-नाशके लिये-
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी । दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥
(१३) आरोग्य और सौभाग्यकी प्राप्तिके लिये-
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
(१४) सुलक्षणा पत्नीकी प्राप्तिके लिये-
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥
( १५) बाधा-शान्तिके लिये-
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥
( १६) सर्वविध अभ्युदयके लिये-
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः । धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ॥
(१७) दारिद्र्यदुःखादिनाशके लिये-
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥
(१८) रक्षा पानेके लिये-
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥
(१९) समस्त विद्याओंकी और समस्त स्त्रियोंमें मातृभावकी प्राप्तिके लिये-
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु । त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ॥
(२०) सब प्रकारके कल्याणके लिये-
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
(२१) शक्ति-प्राप्तिके लिये-
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
(२२) प्रसन्नताकी प्राप्तिके लिये-
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि । त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ॥
(२३) विविध उपद्रवोंसे बचनेके लिये-
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र । दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ॥
(२४) बाधामुक्त होकर धन-
पुत्रादिकी प्राप्तिके लिये- सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः । मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥
(२५) भुक्ति-मुक्तिकी प्राप्तिके लिये-
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
(२६) पापनाश तथा भक्तिकी प्राप्तिके लिये-
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
(२७) स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिके लिये-
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी । त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ॥
(२८) स्वर्ग और मुक्तिके लिये-
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते। स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
(२९) मोक्षकी प्राप्तिके लिये-
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया। सम्मोहितं देवि समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ॥
(३०) स्वप्नमें सिद्धि-
असिद्धि जाननेके लिये-दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके । मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय ॥
12-श्री देवी जी की आरती...
श्रीदेवीजीकी आरती श्री दुर्गा सप्तशती
जगजननी जय! जय !! (मा! जगजननी जय! जय !!) भयहारिणि, भवतारिणि, भवभामिनि जय! जय !! जग० तू ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मरूपा। सत्य सनातन सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा ॥ १ ॥ जगजननी०
आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी। अमल अनन्त अगोचर अज आनंदराशी ॥ २ ॥ जग०
कलाधारी। अविकारी, अघहारी, अकल,कालाधारी | कर्ता विधि, भर्त्ता हरि, हर सँहारकारी ॥ ३ ॥ जग०
तू विधिवधू, रमा, तू उमा, महामाया। मूल प्रकृति विद्या तू, तू जननी,जाया ॥ ४ ॥ जग०
राम, कृष्ण तू, सीता, व्रजरानी राधा। तू वांछाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा ॥ ५ ॥ जग०
दस विद्या , नव दुर्गा, नानाशस्त्रकरा। अष्टमातृका,योगिनि, नव नव रूप धरा ॥ ६ ॥ जग०
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू | तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू ॥ ७ ॥ जग०
सुर-मुनि-मोहिनि सौम्या तू । विवसन विकट-सरूपा, प्रलयमयी अति धारा ॥ ८ ॥ जग०
तू ही, स्नेह-सुधामयि, तू अति गरलमना | रलविभूषित तू ही, तू ही अस्थि-तना ॥ ९ ॥ जग०
मूलाधारनिवासिनि इह-पर-सिद्धिप्रदे। कालातीता काली, कमला तू वरदे ॥ १०॥ जग०
शक्ति शक्तिधर तू ही नित्य अभेदमयी । भेदप्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी ॥ ११॥ जग०
हम अति दीन दुखी मा! विपत-जाल घेरे | हैं कपूत अति कपटी,पर बालक तेरे ॥ १२॥ जग०
निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै। करुणा कर करुणामयि ! चरण-शरण दीजै ॥ १३॥ जग०
13- श्री अम्बाजी की आरती …
श्रीअम्बाजी की आरती …श्री दुर्गा सप्तशती
जय अम्बे गौरी मैया जय श्यामागौरी।
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव री ॥ 1 ॥जय अम्बे०
माँग सिंदूर विराजत टीको मृगमदको ।
उज्ज्वलसे दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ 2 ॥ जय अम्बे०
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै ।
रक्त-पुष्प गल माला कण्ठन पर साजै ॥3 ॥ जय अम्बे०
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी।
सुर-नर-मुनि-जन सेवत, तिनके दुःखहारी ॥4॥ जय अम्बे०
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चन्द्र दिवाकर सम राजत ज्योति ॥5 ॥ जय अम्बे०
शुम्भ निशुम्भ विदारे, महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥6 ॥ जय अम्बे०
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे।
मधु कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ।| 7 ।। जय अम्बे०
ब्रह्माणी रुद्राणी, तुम कमला रानी।
आगम-निगम-बखानी, तुम शिव पटरानी ॥8 ॥ जय अम्बे०
चौंसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरु ।
बाजत लाल मृदंगा औ बाजत डमरु ॥9 ॥ जय अम्बे०
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता।
भक्तन की दुख हरता सुख सम्पत्ति करता ॥10॥ जय अम्बे०
भुजा चार अति शोभित, वर-मुद्रा धारी।
मन वांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥11॥ जय अम्बे०
कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती।
(श्री) मालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥12॥ जय अम्बे० (श्री)
अम्बे जी की आरती जो कोई नर गावै ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख सम्पति पावै ॥13॥ जय अम्बे०
जय माँ अम्बे जय माँ सप्तशती
श्री दुर्गा सप्तशती
🙏🙏जय माता दी,जय माता दी,जय माता दी 🙏🙏
14- श्री दुर्गा सप्तशती देवीमयी ...
(देवीमयी)
तव च का किल न स्तुतिरम्बिके ! सकलशब्दमयी किल ते तनुः। निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयो मनसिजासु बहिःप्रसरासु च॥
इति विचिन्त्य शिवे ! शमिताशिवे ! जगति जातमयत्नवशादिदम्स्तु | तिजपार्चनचिन्तनवर्जिता न खलु काचन कालकलास्ति मे॥
‘हे जगदम्बिके! संसार में कौन-सा वाङ्मय ऐसा है, जो तुम्हारी स्तुति नहीं है; क्योंकि तुम्हारा शरीर तो सकल शब्दमय है। हे देवि ! अब मेरे मन में संकल्पविकल्पात्मक रूप से उदित होने वाली एवं संसार में दृश्य रूप से सामने आनेवाली सम्पूर्ण आकृतियों में आपके स्वरूप का दर्शन होने लगा है। है समस्त अमंगलध्वंसकारिणि कल्याणस्वरूपे शिवे ! इस बातको सोचकर अब बिना किसी प्रयत्नके ही सम्पूर्ण चराचर जगत्में मेरी यह स्थिति हो गयी है कि मेरे समय का क्षुद्रतम अंश भी तुम्हारी स्तुति, जप, पूजा अथवा ध्यान से रहित नहीं है। अर्थात् मेरे सम्पूर्ण जागतिक आचार-व्यवहार तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न रूपों के प्रति यथोचितरूप से व्यवहृत होने के कारण तुम्हारी पूजा के रूप में परिणत हो गये हैं।’
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